SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकनियुक्तिश्च अ० ३ सू. १ बन्धस्वरूपनिरूपणम् ३४१ याम्' इति भौवादिकात् कषधातोर्बाहुलकादायप्रत्ययः, स च मुख्यतया चतुर्विधः क्रोध-मानमाया-लोभभेदात्-"कषायसुरभी रसे रागवस्तुनि निर्यासे क्रोधादिषु विलेपने" इति हैमः । जीवस्तु-आत्मा कर्ता स्थित्युत्पत्तिव्ययपरिणतिलक्षणो ग्राह्यः, तस्य कर्तृत्वे सत्येव कर्मबन्धफलानुभवौ सम्भवतः । कर्मशब्दार्थस्तु-क्रियते इति कर्म, तच्चाष्टविधम्-ज्ञानावरणदर्शनावरण -वेदनीय–मोहनीय-आयुष्य-नाम-गोत्रा-ऽन्तराय भेदात् । तस्याऽष्टविधस्य कर्मणो योग्यानाम्-अष्टसु औदारिकवर्गणासु ज्ञानावरण-दर्शनावरणादि कर्मभावप्राप्तियोग्यानां पूरणगलनलक्षणानां पुद्गलानाम् अनन्तानन्तप्रदेशस्कन्धीभूतानां चतुःस्पर्शानामादानमात्मप्रदेशेषु लगनं संश्लेषणं स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य धूलिरजःकणलगनवद् बन्धो भवतीति भावः । मिथ्यादर्शनाद्यावेशादाीकृतस्यात्मन स्तदाकारपरिणतिक्रिया कर्मलगनहेतुः तस्याः क्रियायाः कर्ता चात्मा भवति । तथाविधक्रियानिर्वयं कर्म अष्टविधं कर्मबन्धं प्रति वक्ष्यमाणमिथ्यादर्शनादीनां सामान्यहेतुत्वेऽपि कषायस्य क्रोधादिरूपस्य प्रधानहेतुत्वं वर्तते, अतएवाऽत्र कषायग्रहणं कृतम् । कषाय है । यह कषाय शब्द 'कष् हिंसायाम्' धातु से बना है। कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार मुख्य भेद हैं । हैमकोश के अनुसार कषाय शब्द के अनेक अर्थ है, जैसे-सुरभि, रस, राग, वस्तु, निर्यास; क्रोधादि और विलेपन । जीव का अर्थ है आत्मा जो स्थिति, उत्पत्ति और व्यय रूप परिणाम से युक्त है। वह जीव कर्ता है। उसके कर्ता होने पर ही कर्म का बन्ध और फल का अनुभव संभव हो सकता है। कर्म शब्द का अर्थ है जो किया जाय सो कर्म । कर्म के आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, और अन्तराय। औदारिक आदि आठ प्रकार की पुद्गल की वर्गणाएँ हैं। उनमेंसे कार्मणवर्गणा के पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत होने के योग्य होते हैं । अनन्तानन्त प्रदेशी और चार स्पर्श वाले ही वे पुद्गल आत्मप्रदेशों में मिल जाते हैं, जैसे तेल से चिकने शरीर पर धूलिके कण चिपक जाते हैं । यही बन्ध कहलाता है । मिथ्यादर्शन आदि के आवेश से आत्मा तद्रूप में परिणत होती है, वह परिणति क्रिया ही कर्मों के लगने का कारण है । उस क्रिया का कर्ता आत्मा है । आत्मा की क्रिया से उत्पन्न होने वाले कर्म आठ प्रकार के हैं। आगे कहे जाने वाले मिथ्यादर्शन आदि कर्मबन्ध के सामान्य कारण हैं, उसका प्रधान कारण तो क्रोध आदि कषाय ही है । इसी कारण यहाँ कषाय का ग्रहण किया गया है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy