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________________ ३३६ तत्त्वार्थसूत्रे वर्तमानादिपरिणतियुक्तं भवति, तथाचाऽयं परिणामो द्रव्यार्थिकनयव्यापारात्-धर्मादिस्वभावो भवति न तु-धर्मादिव्यतिरिक्तं । ____ एवं-क्वचिद् वैनसिकः, क्वचित्तु प्रायोगिकः, क्वचित्पुनरुभयथा भवति सद्वस्तुन उत्पाद व्ययध्रौव्यलक्षणात् । एवञ्चा-नेकान्तवादानुसारेण रूपिषु पुद्गलेषु द्रव्येषु प्रधानतया सादिपरिणामस्य सत्त्वेऽपि कथञ्चित्-अनादिपरिणामोऽपि संघटते । एवमरूपिषु धर्मादिद्रव्येषु प्रधानतयाऽनादिपरिणामस्य सत्त्वेऽपि कथञ्चित्सादिपरिणामो भवति, न तु–अरूपिषु, अमूर्तद्रव्यधर्मादिषु, इतिकेचिदाहुः तन्न तेषां मतेऽरूपिद्रव्येषु पर्यायाश्रयव्यवहारविलोपापत्न्या-उत्पादव्ययादि लक्षणाऽसङ्गमात् परिणामाभावः स्यात् । तेषाञ्च–धर्मादीनामरूपिद्रव्याणामपरिणामित्वेऽनिर्धार्यमात्रस्वभावत्वं भवेत् , स्वत उत्पादव्ययपरिणामरहितत्वात् । तस्मात्-सर्वत्रैव मूर्तेषु-अमूर्तेषु च द्रव्येषु केचित्-साद्याः केचिदनाद्याश्च परिणामाः सन्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्----- तथाहि-जीवेषु तावदरूपिषु अनादिजीवत्व--- भव्यत्वाऽभव्यत्वादिपरिणामवत्स्वपि योगोपयोगौ-आदिमन्तौ परिणामौ स्तः । तत्र-योगः खलु पुद्गलसम्बन्धादात्मनो वीर्यविशेषः परि कालद्रव्य भी वृत्त, वर्तमान आदि परिणमन से युक्त होता है । इस प्रकार यह परिणाम द्रव्यार्थिकनय के व्यापार से धर्म आदि का स्वभाव है, धर्म आदि से भिन्न नहीं है। इसी प्रकार परिणाम कहीं स्वभाविक होता है, कहीं प्रायोगिक होता है और कहीं दोनों प्रकार का होता है । क्योंकि सद्वस्तु वही है जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण वाली हो । इस प्रकार अनेकान्तवाद में रूपी पुद्गल द्रव्यों में प्रधान रूप से सादि परिणाम होने पर भी कथंचित् अनादि परिणाम भी घटित होता है । इसी प्रकार अरूपी धर्मादि द्रव्यों में प्रधान रूप से अनादि परिणाम होने पर भी कथंचित् सादि परिणाम भी घटता है । किसी-किसी ने कहा है कि रूपी पुद्गलद्रव्यों में ही सादि परिणाम होता है, अरूपी धर्म आदि द्रव्यों में नहीं होता; उनका कथन यथार्थ नहीं है । उनके मत के अनुसार अरूपी द्रव्यों में पर्यायाश्रयी व्यवहार के अभाव की आपत्ति होती है और ऐसा होने से उत्पाद-व्यय आदि लक्षण की संगति नहीं बैठती । इस कारण परिणाम के अभाव का ही प्रसंग हो जाता है। धर्म आदि अरूपी द्रव्यों को अपरिणामी मान लेने पर उनका स्वरूप अनिर्धारित हो जाएगा, क्योंकि वे स्वतः उत्पाद और व्यय परिणाम से रहित हैं। अतएव मूर्त और अमृत सभी द्रव्यों में कोई परिणाम सादि होते हैं, कोई अनादि होते हैं। ऐसा स्वीकार करना चाहिए । अरूपी जीवों में जैसे जीवत्व भव्यत्व और अभव्यत्व ये अनादि परिणाम हैं, उसी प्रकार योग और उपयोग आदिमान् परिणाम भी हैं। पुद्गलद्रव्य के सम्बन्ध से आत्मा के वीर्य का स्फुरण होना योग कहलाता है । वह काय,
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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