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________________ marimmaa aaaaaaandmmmm तत्त्वार्थसूत्रे ___ परिणामशब्दस्य वाच्यार्थस्तु-परिशब्दस्य व्याप्तिरर्थः, यथा-गुणेन परीतः गुणेन व्याप्त इत्युच्यते, नम् धातोः प्रह्वत्वं-नम्रीभावः, ऋजुत्वम् अवस्थान्तरप्राप्तिः, परितो नमनम्-सर्वत्राऽनुवर्तनम् परिणामः । यथा-मृद्रव्यस्य सर्वत्र पिण्डघटकपालादिष्वनुवर्तनं दृश्यते, सुवर्णस्य च द्रव्यस्य कटककुण्डलवलयरुचकादिषु सर्वत्रवानुवर्तनं प्रत्यक्षतया प्रसिद्धम् । एवमेव-घटादिककुण्डलादिकं मृदा-सुवर्णेन द्रव्येण व्याप्तञ्च भवति । एवं धर्मादिद्रव्यं स्वस्वरूपमपरित्यजदेव सर्वत्रैव गतिस्थित्यादिषु अनुवर्तते, इति सामान्यरूपः परिणामो भवति, अनुवृत्तिरूपत्वात् । सकलद्रव्यस्थित्यंशसामान्येनो-त्पादोव्ययश्च व्याप्तो भवति, नहि-कस्यापि उत्पादो व्ययो वा स्थित्यंशसामान्येनाऽव्याप्तो भवति, द्रव्यं द्रव्यं परितो नमनं परिणामः । तथाचधर्मद्रव्यस्यैव स्वतत्त्वं निजमवस्थानान्तरं परिणामः, नतु-अधर्मद्रव्यादेरवस्थान्तरं धर्मद्रव्यस्य परिणामः सम्भवति । एवमधर्मद्रव्यस्य स्वतत्त्वम्-निजमवस्थान्तरं परिणामः, न तु-धर्माकाशादेरवस्थान्तरम् अधमद्रव्यस्य परिणामः सम्भवति । एवमाकाशादिद्रव्याणामपि स्वस्वावस्थान्तरापत्तिः परिणामोऽवसेयः । धर्मस्तावत्स्वस्वरूपमपरित्यजन्नेव गमनकर्तुर्गत्युपग्रहाकारेण परिणतो भवति अधर्मः पुनःहै, जैसे पथिकों के ठहराने में छाया सहायक हो जाती है । ये दोनों द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। इसी प्रकार छहों द्रव्यों का जो स्वभाव है, स्वरूप है; वही परिणाम कहलाता है। परिणाम शब्द का वाच्यार्थ इस प्रकार है-परिणाम यहाँ परि शब्द का अर्थ है व्याप्ति, जैसे गुण से परिणत का मतलब होता है-गुण से व्याप्त नम् धातु का अर्थ है-नम्रीभाव ऋजुता या अवस्थान्तर की प्राप्ति । दोनों शब्दांशों का आशय निकला-सर्वत्र अनुवर्तन करना । यही परिणाभ शब्द का अर्थ है । जैसे मृत्तिका का पिण्ड घट कपाल आदि सभी अवस्थाओं में अनुवर्तन देखा जाता है और स्वर्णद्रव्य का कटक, कुंडल वलय रुचक आदि सभी अवस्थाओं में अन्वय-प्रत्यक्ष देखा जाता है। इसी प्रकार घट आदि तथा कुण्डल आदि मृत्तिका और स्वर्ण द्रव्य से व्याप्त रहते है। इसी प्रकार धर्मादि द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग न करते हुए ही गति सहायकत्व आदि में अनुवर्तन करते हैं । अनुवृत्ति रूप होने से यह सामान्य स्थिति--अंश से व्याप्त रहता है । किसी भी द्रव्य का उत्पाद या व्यय सामान्य स्थिति-अंश से अव्याप्त नहीं होता। इस प्रकार धर्मद्रव्य का ही अपनी एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिणत होना परिणाम है; ऐसा नहीं कि धर्मद्रव्य किसी अन्य अधर्मद्रव्य आदि की अवस्था में परिणत होजाय इसी प्रकार अधर्मद्रव्य अपनी ही एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिणत होता है। वह धर्म आदि किसी अन्य द्रव्य की अवस्था रूप में परिणत नहीं होता। इसी प्रकार आकाश आदि द्रव्यों का भी अपनी-अपनी अवस्थाओं में परिणमन होता रहता है अर्थात् एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी अवस्था होती रहती है । इसी को परिणाम समझना चाहिए।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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