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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ ०२ सू० २९ द्रव्यलक्षणनिरूपणम् ३२५ एवमात्मनि चैतन्यं भवति तदाहि — आत्मा पुनर्ज्ञानाद्याकारेण परिणममानो भेदेऽप्यसति भेदेन व्यवहियते - " आत्मनि चैतन्यमिति । एवं तदेव पुद् गलद्रव्यं स्वरूपमपरित्यजत् समासादिततत्तद्गुणविशेषरूपादि - घटादिव्यवहारे हेतुर्भवतीति कथञ्चिद्भेदाभेदस्वरूपगुणपर्यायवद् द्रव्यमुच्यते । एवं - धर्माधर्माकाशकालजीवद्रव्याण्यपि गुणपर्यायवत्तया उपर्युक्तरीत्या भावनीयानि । द्रव्यं तावत् सहभाविनां - क्रमभाविनाञ्च गुणपर्यायाणां भव्यं योग्यं भवति । तत्रचा-गुरुलघुरूपादयो गुणाः सह भाविनो भवन्ति, पर्यायाश्च - पिण्डघटकपालादयः क्रमभाविनोऽवगन्तव्याः । एवं- गतिस्थित्यवगाहज्ञानदर्शननारकप्रभृतयो गुणपर्यायाः पूर्वोक्तरीत्यैव तेषां यथायोग्यं भावनीया इति । उक्तश्चोत्तराध्ययने २८ अध्ययने ६ गाथायाम् " गुणाण मासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे - " ॥१॥ " गुणानामाश्रयो द्रव्यम् एकद्रव्यश्रिता गुणाः । लक्षणं पर्यवाणान्तु उभयोराश्रिता भवेयुः - " ॥१॥ इति ॥ २९ ॥ हैं; न एकान्त भिन्न हैं और न एकान्त अभिन्न हैं । फिर भी कभी-कभी द्रव्य से गुणपर्याय के भेद की विवक्षा की जाती है । इस भेदविवक्षा के अनुसार ही कहा जाता है कि आत्मा में चैतन्य है । आमा ज्ञानादि रूप में स्वयं परिणत होता है, अतएव चैतन्य और आत्मा में भेद न होने पर भी आत्मा में चैतन्य है इस प्रकार भेद रूप से व्यवहार होता है । वही पुद्गल द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग न करता हुआ विशेष - विशेष रूप आदि और घट आदि के व्यवहार में कारण बनता है । इस प्रकार कथंचित् भिन्न और अभिन्न गुण एवं पर्याय वाला द्रव्य कहलाता है । धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव द्रव्यों के विषय में भी यही समझना चाहिए कि वे भी गुण और पर्याय वाले हैं । द्रव्य सहभावी गुणों और क्रमभावी पर्यायों के योग्य होता है । इनमें अगुरुलघुत्व तथा रूप आदि गुण सहभावी हैं और पिण्ड, घट, कपाल आदि पर्याय क्रमभावी हैं। इसी प्रकार धर्मास्तिकाय में गति हेतुत्व, अधर्मास्तिकाय में स्थितिहेतुत्व, आकाश में अवगाहहेतुत्व, जीव में ज्ञान - दर्शन आदि गुण तथा नारक आदि पर्यायों का यथायोग्य पूर्वोक्त प्रकार से विचार कर लेना चाहिए । उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन की ६ ठी गाथा में कहा है जो गुणों का आधार हो, वह द्रव्य कहलाता है । जो सिर्फ द्रव्य में आश्रित हों वे गुण हैं । किन्तु पर्यायों का लक्षण दोनों के आश्रित होता है । तात्पर्य यह है कि गुण और पर्याय दोनों ही द्रव्य के अंश हैं, किन्तु दोनों में अन्तर यह है कि गुण सिर्फ द्रव्य में रहता है और पर्याय द्रव्यों तथा गुणों दोनों के आश्रित होता है । जैसे जीव द्रव्य है, 'चैतन्य उसका
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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