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________________ ३१४ तत्त्वार्थसूत्रे गुणोऽल्पत्वादेव जघन्यगुणरूक्षं पुद्गलं परिणामयितुं समर्थो न भवति । एवम् - जघन्यो रूक्षगुणः स्तोकत्वादेव जघन्यगुणस्निहं न स्वाधीनं कत्तुं समर्थो भवति । तत्र-जघन्यस्तावद् एकगुणस्निग्धः-एकगुणरूक्षः । स्नेहादिगुणानाञ्च प्रकर्षाऽप्रकर्षभेदो ऽस्त्येव, यथा-उदकापेक्षया-ऽजादुग्धमधिकस्निग्धं भवति-अजादुग्धाद् गोदुग्धमधिकं स्निग्धम्, गोक्षीराद् महिषोपयः, तदपेक्षया-उष्ट्रीपयोऽधिकम् , ततोऽप्यविपयोऽधिकं स्निग्धं भवति, इत्युत्तरोत्तरमेषां स्नेहाधिक्यम्, पूर्वं पूर्वं रूक्षताधिक्यमवगन्तव्यम् । तत्र-एकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्यैकगुणस्निग्धेनेव यादिना सर्वेण समानेन संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तगुणस्निग्धेन वा पुद्गलेन बन्धो न भवति । ___ एवमेव-एकगुणरूक्षस्य पुद्गलस्यैकगुणरूक्षादिभिः सदृशैः संख्येयासंख्येयाऽनन्तानन्तगुणरूक्षैः पुद्गलैःबन्धो न भवति । एवं जघन्यगुणस्निग्धानां जघन्यगुणरूक्षाणां च पुद्गलानां परस्परं बन्धो न भवति । अतो जघन्य (निकृष्ट) गुणस्निग्धरूक्षौ परित्यज्य तदन्येषां मध्यमोत्कृष्टस्निग्धानां रूक्षैः सह रूक्षाणां च तथाविधानां स्निधैः सह परस्परं बन्धो भवति । तथाच--द्विगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्यैकगुणरूक्षेण पुद्गलेन सह बन्धो न भवति । एवम्एकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य द्विगुणरूक्षेण पुद्गलेन सह बन्धो न भवति । एकस्य जघन्यगुण का अभाव ही प्रतीत होता है । पुद्गलों में परिणमन करने की शक्तियाँ क्षेत्र और काल के अनुसार विचित्र प्रकार की होती है। उनमें से कोई स्वाभाविक और कोई-कोई प्रयत्नसापेक्ष हुआ करती हैं । जघन्य अर्थात् एक डिगरी का स्नेह गुण अल्पमात्रा में होने के कारण जघन्य गुण वाले रूक्ष पुद्गल को परिणत करने में समर्थ नहीं होता इसी प्रकार जघन्य रूक्ष गुण वाला भी अल्प होने के कारण जघन्य गुण वाले स्निग्ध पुद्गल को अपने रूप में परिणत नहीं कर सकता । जघन्य का अर्थ है-एक गुण स्निग्ध या एक गुण रूक्ष । स्निग्धता रूक्षता आदि गुणों का परिमाण न्यूनाधिक होता ही है; जैसे जल की अपेक्षा बकरी का दूध अधिक स्निग्ध होता है, बकरी के दूध से गाय का दूध अधिक स्निग्ध होता है, इसी प्रकार गाय के दूध से भैंस का, भैंस के दूध से उँटनी का और उँटनी के दूध की अपेक्षा भेड़ का दूध अधिक स्निग्ध होता है । इनमें उत्तरोत्तर स्निग्धता अधिक हैं । और पूर्व पूर्वमें रूक्षता के अंश अधिक है। एक गुण स्निग्धपुद्ल का जैसे एक गुण स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार दो, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुण स्निग्ध पुद्गल के साथ भी बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार एक गुण रूक्षता वाले पुद्गल का एक गुण रूक्षता वाले तथा संख्यात असंख्यात और अनन्त गुण रूक्षता वाले पुद्गलों के साथ बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार जघन्य गुण वाले स्निग्ध और जधन्य गुण वाले रूक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता। दो गुण स्निग्धता वाले पुद्गल का एक गुण रूक्षता वाले पुद्गल के साथ बन्ध नहीं
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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