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________________ ३०८ तत्त्वार्थसूत्रे यदर्शनात् ध्रौव्यलक्षणे स्थित्यंशेऽर्पिते-उपात्ते सति साक्षात्-तद्विपरीतयोरुत्पादव्यययोरनर्पितयोरनुपात्तयोरपि ग्रहणं भवत्येव । __ ध्रौव्यं तावत्-पूर्वमुत्तरं च पर्यायमुत्पादव्ययलक्षणमासादयति, न पुन रुत्पादलक्षणो-व्ययलक्षणो वा पर्यायः पूर्वोत्तरपर्यायानुभावी भवति । तस्माद् विलक्षणौ विभिन्नौ उत्पाद-व्ययौ सुज्ञातौ भवतः । त्रिविधमपि-उत्पादव्ययस्थितिलक्षणं सद् वस्तु अर्पणाऽनर्पणाभ्यां नित्यमनित्यञ्च सिद्धम् । अनेकधर्मवत्त्वेन व्यवस्थितं वर्तते । तत्र-प्रयोजनवशात्कदाचित्कश्चिद्धर्मो वचनेनार्पितो विवक्षितो भवति, कश्चित्पुनः सन्नपि प्रयोजनाभावात्-अनर्पितोऽविवक्षितो भवति । किन्तु-न हि एतावता स धर्मी विवक्षितधर्ममात्र एव भवति, अपितु-अविवक्षितधर्मयुक्तोऽपि भवत्येव । तस्मात् सत्पर्यायविवक्षायां सद् उत्पादादिस्थित्यंशविविक्षायां नित्यमसदपि उत्पादादि अनित्यञ्च भवति । सत्त्वाऽसत्त्वविशिष्टग्रहणात् सर्वदा वस्तुनो येन प्रमाणेन यद् वस्तु सद्विशिष्टं गृह्यते । अन्यथा-अविवक्तग्रहणमेवापद्येत, चाक्षुषादिबुद्धयो विविक्ता एव प्रतीयन्ते । उक्तञ्च-स्थानाङ्गे १० स्थाने—'अप्पियणप्पिए-" इति । अर्पिता-ऽनर्पिते-इति॥२७॥ मूलसूत्रम्--"वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण खंधाणं बंधो-" ॥२८॥ छाया-“विमात्र-स्निग्ध-रूक्षत्वेन स्कन्धानां बन्धः-" ॥२८॥ विवक्षा करके, मृत्तिका द्रव्य का अन्वय देखने से ध्रौव्य रूप स्थिति–अंश को अर्पित-ग्रहण करने पर उससे साक्षात् विरुद्ध अनर्पित उत्पाद और व्यय का भी ग्रहण हो जाता है । ध्रौव्य द्रव्य उत्पाद रूप व्यय रूप पूर्वोत्तर पर्याय को धारण करता है, उत्पाद पर्याय या व्ययपर्याय पूर्वोत्तर पर्यायों में अनुगमन नहीं करता । इस कारण उत्पाद और व्यय विभिन्न और विलक्षण हैं, यह सहज ही ज्ञात हो जाता है । इस प्रकार अर्पण औ अनर्पण के द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप वस्तु नित्य और अनित्य सिद्ध होती है । प्रयोजन के अनुसार कदाचित् कोई धर्म वचन से अर्पितविवक्षित किया जाता है और दूसरा धर्म विद्यमान होते हुए भी प्रयोजन न होने से अनर्पित-अविवक्षित होता है। मगर इतने मात्र से ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए उस वस्तु में विवक्षित धर्म ही है । उसमें अविवक्षित धर्म भी रहता ही है । इसकारण जब नित्यता को प्रधानता दी जाती है। तब भी वस्तु में पर्याय की अपेक्षा से अनित्यता रहती है और प्रयोजनवशात् जब पर्याय की मुख्यता से अनित्यता का विधान किया जाता है तब वस्तु में नित्यता भी विद्यमान रहती है। स्थानांग सूत्र में १० वें स्थान में कहा है-'अप्पियणप्पिए' अर्थात् अर्पित और अनर्पित ॥२७॥ मूलसूत्रार्थ--"वेमाय णिद्धलुक्ख' इत्यादि । सूत्र ॥२८॥ विसदृश परिमाण में स्निग्धता और रूक्षता होने से स्कंधों का बन्ध होता है ॥२८॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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