SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० सू. २६ नित्यत्वलक्षणनिरूपणम् ३०१ एतत्सूत्रस्थनित्यग्रहणेन पूर्वसूत्रोक्तघ्रौव्यांशपरिग्रहो भवतीति स खलु-अन्वयी द्रव्यास्तिकांशो न कदापि व्यवच्छिन्नो भवति । सदाकारेणाऽनुत्पद्यमानत्वादविनाशित्वाच्च सूत्रे भावशब्दोपादानेन परिणामनित्यता गृह्यते न तु-कूटस्थ नित्यता कूटमयोधनस्तद्वत्तिष्ठतीति-अविलालिभावः यदि-कूटस्थनित्यताया ग्रहणं भवेत्-तदा "तदव्ययं नित्यम् इत्येव सूत्रं स्यात् । यत्खलु न केनचित्-आकारेण विक्रियते, तदनुपाख्यमेव भवेत् । एवञ्च-सर्वेषामन्वयिनां मत्पिण्डसुवर्णादीनां धर्माणामुपलक्षण बोध्यम् । सत्वं तु-पद्रव्यव्यापकत्वादुक्तम् । जीवस्तावत् साक्षात् सत्वं चैतन्यममूर्तत्वमसंख्येयत्वञ्चा ऽपरित्यजन् तादृशतादृशपरिणामान्न व्यगात्-न विनष्टः, न व्येति न विनश्यति, न व्येष्यति-न विनत ति वा । अतएवाऽविनाशी नित्योऽव्यय उच्यते, न तु-देवनारकादिनाऽनन्वयिना पर्यायेणाऽपि जीवस्य नित्यत्वं ध्रौव्यं वर्तते । एवं-परमाणुर्व्यणुकादिपुद्गलद्रव्यं सत्त्वमूर्तत्वाऽजीवत्वाऽनुपयोगग्राह्यादिधर्मानजहत् विपरिणमते न तु-घटादिपर्यायविवक्षया तस्य ध्रौव्यं भवति । धर्मद्रव्यमपि सत्वाऽमूर्तत्वाऽसंख्येयप्रदेशवत्वलोकव्यापित्वादिधर्माऽपरित्यागेनाऽवतिष्ठते सदा न खल्ल तस्य धर्मद्रव्यस्य परमाणु यज्ञदत्तादीनां प्रत्येक गन्तृत्वस्य विवक्षायामपि गत्युपकारित्वेन नित्यत्वं सम्भवति । गन्तृत्बभेदाद् गत्युपकारित्वं भिद्यते अन्यादृशाकारेण पूर्वः परिणामो भवतिअन्यादृशाकारेण च परःपाणामः, न तावत्प्रथमोत्पन्नो गत्युपकारित्वपरिणामः सर्वदा तिष्ठति । इस सूत्र में गृहीत नित्य शब्द से पूर्वसूत्र में कथित ध्रौव्य अंश समझना चाहिए । द्रव्य का वह अन्वयी अंश कदापि और कहीं भी नष्ट नहीं होता। कोई भी वस्तु सत् रूप से उत्पन्न नहीं होती और न नष्ट होती है, अतएव सूत्र में भाव शब्द के ग्रहण से परिणामिनित्यता ही समझना चाहिए, कूटस्थनित्यता नहीं समझना चाहिए। यदि कूटस्थनित्यता का ही ग्रहण करना होता तो 'तदव्यं नित्यम्' ऐसा सूत्र होता। जिस वस्तु में किसी भी रूप में विकार-अन्यथापन नहीं होता, वह नित्यत्वरूप ही होती है। इस प्रकार सभी अन्वयी मृत्पिण्ड एवं स्वर्ण आदि का उपलक्षण जानना चाहिए । सत्त्व छहों द्रव्यों में व्यापक 'सत्त्व' है। जीव सत् है । वह अपने चैतन्य, अमूर्त्तत्व, असंख्यातप्रदेश वत्त्व स्वभाव का परित्याग नहीं करता। अपने इन धर्मों से वह कभी नष्ट नहीं हुआ, नष्ट नहीं होता और नष्ट नहीं होगा । इस कारण जीव अविनाशी, नित्य और अव्यय कहलाता है । मगर यह नहीं समझना चाहिए कि जीव देव नारक आदि पर्याय की दृष्टि से भी नित्य है। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य सत्त्व, मूर्त्तत्व, अचेतनत्व धर्मों का परित्याग नहीं करता, इस कारण उस में नित्यता है । घट आदि पर्यायों की अपेक्षा से नित्यता नहीं हैं। धर्मद्रव्य सत्त्व, अमूर्त्तत्व, असंख्येय प्रदेशवत्त्व लोकव्यापित्व आदि धर्मों का परित्याग न करता हुआ सदैव स्थिर रहता है, पर्याय की दृष्टि से नहीं अर्थात् परमाणु या यज्ञदत्त की गति
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy