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________________ २८२ तत्वार्थसूत्रे चोक्तरीत्या परमाणुविषये प्रतिघातित्वाऽप्रतिधातित्वे च प्रतिपादिने, तत्र-परिणामविशेषात् तदुभयमपि पुद्गलेषु संघटते । तथाहि-शब्दस्तावत् तिरस्कृतोऽपि कुड्यादिभिरप्रतिहन्यमानः सन् श्रवणपथमासादयति, स एव शब्दः कदाचिद् वायुनोह्यमानः प्रतिहतो भवति, प्रतिकूलवातस्थितेनाऽनुपलभ्यमानत्वादनुकूलवातस्थितेन चोपलभ्यमानत्वात्-गन्धवत् , वायुना-ऊह्यते इति प्रत्यक्षसिद्धम् । तथाच-संघातात् परमाणूनामेकत्वलक्षणात् स्कन्धानामुत्पत्तिर्भवतीति सम्यगुक्तम् । तत्र-द्विप्रदेशस्य स्कन्धस्य परमाण्वन्तरेण योगे त्रिप्रदेशस्कन्ध उत्पद्यते, एवं त्रयाणां परमाणूनामेकत्वलक्षणसंघातपरिणामे सति त्रिप्रदेशस्कन्ध उत्पद्यते, इत्येवं रीत्या संख्येयराशिपर्यन्तं संघातपरिणामभावना कर्तव्या, एवम् – असंख्येयराशावपि एकत्वलक्षणसंघातपरिणामभावना कर्तव्या । तस्मादप्यसंख्येयादुपरिबहु-बहुतर-बहुतमपरमाणुप्रचयात्मकाऽनन्तराशौ-अपि एकत्वलक्षणसंधातपरिणामभावनाऽवसेया । एवमनन्तकराशेरनन्तस्थानानाञ्चाऽनन्तानन्तानां राशौ एकत्वलक्षणसंघातपरिणामेन तावत्प्रदेशाः स्कन्धा उत्पद्यन्ते । परमाणवश्च-----तथाविधस्कन्धानां पृथक्त्वलक्षणभेदादेवोत्पद्यन्ते, न तुदूसरी वायु का प्रतिघात कर देती है । इससे परमाणु का वेग के कारण प्रतिधात होना प्रतीत होता है। उक्त प्रकार से परमाणु के विषय में प्रतिघातित्व और अप्रतिघातित्व का प्रतिपादन किया गया है । परिणमन की विशेषता के कारण पुद्गलों में यह दोनों ही घटित हो जाते हैं । जैसे-शब्द दीवार आदि के द्वारा प्रतिहत हो जाता है अगर प्रतिहत न हो तो कर्णगोचर हो जाता है और वही शब्द कभी-कभी वायु के द्वारा प्रेरित होकर प्रतिहत हो जाता है । क्योंकि जो प्रतिकूल वायु की दिशा में स्थित होता है उसे वह सुनाई नहीं देता और अनुकूल वायु की दिशा में बैठे हुए को सुनाई देता है । इससे यह सिद्ध होता है कि जैसे गन्ध को वायु प्रेरित करती है, उसी प्रकार शब्द को भी प्रेरित करती है। ___इस प्रकार परमाणुओं के संधात रूप एकत्व से स्कन्धों की उत्पत्ति होती है, यह जो कहा है सो ठीक ही कहा है । तीन परमाणुओं का संघात होने पर अथवा द्विप्रदेशी स्कन्ध के साथ एक परमाणु का संघात होने से त्रिप्रदेशी स्कन्ध (त्र्यणुक) की उत्पत्ति होती है। यही बात संख्यात प्रदेशी और असंख्यातं प्रदेशी स्कन्ध की उत्पत्ति के विषय में समझ लेना चाहिए । असंख्यात से भी आगे बहु, बहुतर और बहुतम परमाणुओं के प्रचय रूप अनन्त प्रदेशि में भी एकत्वरूप संधात की बात समझ लेना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जितने प्रदेश वाले पुद्गलों का संघात होगा, उतने प्रदेशों वाला ही स्कन्ध उत्पन्न होगा इस प्रकार अनन्तानन्त प्रदेश वाले पुद्गलों के संघात से अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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