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________________ २६४ तत्त्वार्थसूत्रे - तस्मात् --पुद्गलद्रव्यमेव प्रतिविशिष्टपरिणमाऽनुगृहीतं सत् शब्दत्वेन परिणतं भवतीतिसिद्धम्-एवं पौद्गलिकस्तावद् बन्धस्त्रिविधोऽवगन्तव्यः प्रयोगबन्धः-१ विस्रसाबन्धः२ मिश्रबन्धश्च-३ तत्र-परस्पराऽऽश्लेषलक्षणो बन्धः, प्रयोगेन जीवव्यापारेण सम्पन्नः प्रायोगिक औदारिकशरीरजतुकाष्ठादिविषयो बोध्यः । विस्रसया स्वभावेन प्रयोगनिरपेक्षेण निष्पन्नो बन्धः वैस्रसिक उच्यते, . स च-साद्यनादिभेदात्-द्विविधो भवति, तत्र-सादिविस्रसाबन्धो विद्यु-दुल्का-मेध-वह्नीन्द्रचापप्रभृतिविषमगुणविशेषपरिणतपरमाणुसमुद्भूतः स्कन्धपरिणामो बोद्धव्यः । अनादिश्च विस्रसाबन्धो धर्माधर्माकाशविषयो भवति । मिश्रस्तावद् बन्धः प्रयोग–विस्रसाभ्याम् जीवप्रयोगसहचरिताऽचेतनद्रव्यपरिणति लक्षणः स्तम्भकुम्भादिविषयो द्रष्टव्यः । अत्र चोभयमपि प्राधान्येन विवक्षितं बो.. ध्यम्. । एवञ्च-पूर्व सामान्यतो द्वैविध्येनोक्तोऽपि बन्धः किञ्चिद्विशेषप्रतिपादनार्थं पुनरत्र प्रतिपादितः एवं सूक्ष्मत्वमपि पुद्गलपरिणाम एव, तद् द्विविधम् , अन्त्यम्-आपेक्षिकञ्च भवतीति पूर्वमपि सामान्यः प्रतिपादितः, तस्यैव किञ्चिद विशेषमाह-तत्राऽन्ते भवमन्त्यमुच्यते । अन्तेषु परमाणुषु भवं सूक्ष्मत्वमन्त्य मुच्यते, अन्त्य सूक्ष्मत्वस्य परमाणून् विहाया-ऽन्यत्राऽसम्भवात् । अपेक्षाकृतपर्याय द्रव्य से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होता है, अतएव शब्द भी पुद्गल द्रव्य से कथंचित् भिन्नाभिन्न मानना चाहिए । - इससे यह सिद्ध हुआ कि ध्वनि रूप परिणाम से या श्रोत्रग्राह्यरूप से परिणत पुद्गल ही शब्द कहलाता है। - पौद्गलिक बन्ध तीन प्रकार का है-प्रयोग बन्ध, विस्रसाबन्ध और मिश्रबन्ध । एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ आश्लेष होना-मिल जाना या चिपक जाना बन्ध कहलाता है । जीव के व्यापार से उत्पन्न होने वाला बन्ध प्रायोगिक बन्ध कहलाता है, जैसे औदारिक शरीर अथवा लाख और काष्ठ का बन्ध । विस्रसा अर्थात् स्वभाव से जीव के प्रयोग के बिना ही होने वाला बन्ध विस्रसा बन्ध कहलाता है। विस्रसाबन्ध दो प्रकार का है-सादि और अनादि । विद्युत् , उल्का, मेघ, अग्नि, इन्द्रधनुष आदि में विषम गुण वाले परमाणुओं के कारण जो स्कन्ध रूप पर्याय की उत्पत्ति होती है, वह सादि विस्रसाबन्ध है । धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य अनादि काल से स्वभाव से ही परस्पर सम्बद्ध हैं । उनका बन्ध अनादि विस्रसाबन्धं कहलाता है। मिश्रबन्ध उपर्युक्त दोनों कारणों से अर्थात् जीव के व्यापार और स्वभाव से होता है । वह जीव के व्यापार से सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति है। स्तंभ कुंभ आदि मिश्रबन्ध के अन्तर्गत हैं। मिश्रबन्ध में दोनों की प्रधानता होती है । इस प्रकार पहले यद्यपि बन्ध के दो भेद कहे गए हैं तथापि किंचित् विशेष बतलाने के लिए यहाँ तीन भेदों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार सूक्ष्मत्व भी पुद्गल का ही परिणाम है । वह दो प्रकार का होता हैअन्त्य और आपेक्षिक इसका कथन पहले किया जा चुका है, यहाँ कुछ विशेषता कहते हैं
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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