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________________ १८ तत्वार्थले छाया---संसारिणो मुक्ताश्च ॥४॥ दीपिका-पूर्वसूत्रे खलु संसारिणो जीवाः समनस्काऽमनस्कभेदेन द्विविधा सन्तीति प्रतिपादितम् सम्प्रति-सामान्यतो जीवानां द्वैविध्यं प्रतिपादयति संसारिणो मुत्ता य इति । संसारिणो मुक्ताश्चेति, तत्र—संसरणं संसारः यद् अवष्टम्भेन जीवस्य संसरणं-भवाद्भवान्तरगमनं भवति स ज्ञानावरणादिकर्माष्टकरूपः संसार उच्यते । स च ज्ञानावरण-दर्शनावरण--वेदनीय मोहनीया--ऽऽयुर्नाम--गोत्रान्तरायरूपो बोध्यः । एवंविधः संसारो येषामस्ति ते संसारिणः क्रोधमान-माया-लोभादि. कषायादि बलवद् मोहरूपो वा संसारो येषामस्ति ते संसारिणः तथाविधात् संसाराद् ये मुच्यन्तेस्म ते मुक्ता व्यपदिश्यन्ते । निरस्ताशेषकर्माणो जीवाः संसाराद् मुक्तत्त्वान्मुक्ता उच्यन्ते । यद्वा-द्रव्यपरिवर्तन-क्षेत्रपरिवर्तन-कालपरिवर्तन-भवपरिवर्त्तनभावपरिवर्तन-रूप पञ्चविधपरिवर्तनात्मक संसारलक्षण संसारयुक्ताः जीवाः संसारिण उच्यन्ते । तथाविधपञ्चविधात् संसाराद् निवृत्ता जीवाः मुक्ता उच्यन्ते । ___ तत्र-द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधम्-कर्मद्रव्यपरिवर्तनम् नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनञ्चेति । तत्रैकस्मिन् समये-एको जीवो ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मभावेन यान् पुद्गलान् गृहीतवान् ते खल मूलार्थ-'संसारिणो मुत्ताय' जीव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त ॥४॥ तत्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में संसारी जीवों के समनस्क और अमनस्क यों दो भेद बतलाए हैं। अब सामान्य जीवों के दो भेद बतलाते हैं-संसारी और मुक्त । संसरण को संसार कहते हैं । अर्थात् जिनके कारण जीव एक भव से दूसरे भव में गमन करता है, वह ज्ञानावरण आदि आठ कर्म संसार कहलाते हैं । वे आठ कर्म ये हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र और अन्तराय । . इस प्रकार संसार में भ्रमण करने वाले जीव संसारी कहलाते हैं। कोध, मान माया, लोभ, आदि कषाय या बलवान् मोह रूप संसार जिनमें विद्यामान हैं वे संसारी कहलाते हैं । जो इस प्रकार के संसार से छूट चुके वे मुक्त कहलाते हैं । समस्त कर्मों से रहित जीव संसार से मुक्त होने के कारण मुक्त कहे जाते हैं। अथवा द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन, इन पाँच प्रकार के परिवर्तन रूप संसार से युक्त जीव संसारी कहलाते हैं और जो इससे मुक्त हों चुके हैं, वे मुक्त कहलाते हैं। ___ इनमें से द्रव्यपरिवर्तन दो प्रकार का है-कर्मद्रव्यपरिवर्तन और नो कर्मद्रव्यपरिवर्तन । एक समय में एक जीव ने ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंके जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे कर्मपुद्गल
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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