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________________ दीपिनियुक्तिश्च अ० २ सू. १५ धर्माधर्माकाशानां लक्षणानि ३३१ शब्दत्वेन व्यपदिश्यते । यवाङ्कुरम्प्रति यवस्या-ऽसाधारणकारणत्वात् । यथाङ्करमिति व्यवहियते । एवम्-जीवपुद्गलादीनामवगाहम्प्रति आकाशस्या-ऽसाधारणकारणत्वादवगाहोऽपि । आकाशस्यलक्षणमवगन्तव्यम् । ____ अथैवमपि--अवगाहते परमाणुः अवगाहते जीव इति सामानाधिकरण्येन व्यवहारात् अवगाहकजीवपुद्गलादिद्रव्यविषय एवा--ऽवगाहः स्यात् न तु आकाशविषये, यथा-"उपविशति देवदत्तः" इत्यत्र उपवेशनं देवदत्तस्येति चेन्मैवम् । यथा आस्ते देवदत्तोऽस्मिन् इत्यासनपदेन भूम्यादिकमाधार उच्यते । एवम्-अवगाहतेऽस्मिन् इति रीत्याऽवगाहस्य व्यवहार आकाश एवोपयुज्यते इति भावः । अथैवम्- अलोकाकाशे जीवपुद्गलादीना मवगाहाभावेन तत्रावगाहलक्षणमव्याप्तमितिचेत्- . उच्यते, लोकाकाशस्यैवाऽवगाहलक्षत्वात् अलोकाकाशेऽवगाहलक्षणस्याऽव्याप्तत्वेऽपि दोषाऽभावात् । आकाशं तावत् शुषिरलक्षणमेकरूपं वर्तते, तस्याकाशस्याऽवगाहिभिर्धर्मादिद्रव्यैर्विभागः कृतो बोध्यः । एवञ्च-प्रकृतेः सामान्यतः आकांशपदोपादानेऽपि लोकाकाशस्यैव ग्रहणं बोध्यम् । किया जाता है। इस प्रकार पुरुष के हस्त, दंड, एवं भेरी के आघात से उत्पन्न होने वाला शब्द भी मेरी का शब्द कहलाता है । पृथ्वी पानी आदि कारण होने पर भी यव विशिष्ट कारण होने से जैसे यवांकुर यवांकुर कहलाता है, इसी प्रकार अवगाहना में यद्यपि जीव और पुद्गल आदि भी कारण हैं, फिर भी असाधारण कारण होने के कारण आकाश का ही वह लक्षण कहा जाता है। ___ ऐसा होने पर भी 'परमाणु अवगाहना है' या 'जीव अवगाहना है' इस प्रकार समानाधिकरण व्यवहार देखा जाता है, अतएव अवगाहक जीव पुद्गल आदि द्रव्य संबन्धी ही अवगाह होना चाहिए, आकाश संबन्धी नहीं; जैसे कि 'देवदत्त बैठता है यहाँ बैठना देवदत्त का ही माना जाता है । यह कथन ठीक नहीं है। जैसे 'आस्ते देवदत्तोऽस्मिन्' इस प्रकार का विग्रह करने से आसन भूमि आदि कहलाते हैं, उसी प्रकार 'अवगाहतेऽस्मिन्' ऐसा विग्रह करने पर अवगाह का व्यवहार आकाश में ही उपयुक्त होता है। शंका -यदि अवगाहना आकाश का लक्षण माना जाय तो अलोकाकाश में यह लक्षण घटित न होने से अव्याप्ति नामक दोष आता है । अलोक में जीव आदि की अवगाहना का संभव नहीं है। ___समाधान–अवगाहना लक्षण लोकाकाश का ही है, अतः वह यदि अलोकाकाश में नहीं पाया जाता तो भी अव्याप्ति दोष नहीं है । पोलार रूप आकाश तो सर्वत्र एक ही है; केवल धर्म आदि द्रव्यों के सदभाव और असद्भाव के कारण ही लोकाकाश और अलोकाकाश का भेद-व्यवहार होता है। यहाँ सामान्य रूप से 'आफाश' पद का प्रयोग करने पर भी लोकाकाश का ही ग्रहण समझना
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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