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________________ २२४ marrrrrrrrrrm तत्वार्थसूत्रे इति । कालस्य कालद्रव्यस्य मनुष्यक्षेत्रेऽवगाहो भवति,नाऽन्यत्रेति भावः ॥१४॥ मूलसूत्रम् - "गइठिइओगाहाणं निमित्ता धम्माधम्मागासा ॥१५॥ छाया-गति-स्थित्यवगाहानां निमित्तानि धर्माऽधर्माकाशानि ॥१५॥ तत्त्वार्थदीपिका --अथ धर्माऽधर्माऽऽकाशकालपुद्गलजीवानां षण्णां पूर्वोक्तद्रव्याणां क्रमशो लक्षणानि प्रतिपादयितुं प्रथमं धर्माऽधर्माऽऽकाशानां लक्षणानि वक्ति-- "गइ ठिइ ओगाहाणं निमित्ता धम्माधम्मागासा-" इति । गतिस्थित्यवगाहानां निमित्तानि यथाक्रमं धर्माधर्माकाशानि भवन्ति । तथाच-गतिनिमित्तं धर्मः स्थितिनिमित्तमधर्मः, अवगाहनिमित्तमाकाशं भवतीति भावः ॥१५॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व सामान्यतो धर्मादीनि षड्द्रव्याणि प्ररूपितानि सम्प्रति-तेषां यथायथं लक्षणानि प्ररूपयितुम् अथवा-तुल्येऽसंख्येयप्रदेशत्वे सति कृत्स्नलोकब्यापित्वमेव धर्माधर्मयोतते न तु-असंख्येयभागादिषु वृत्तिमत्वम् । एवम्-असंख्येयप्रदेशे लोकाकाशे एवाऽवगाहो भवति, नत्वलोकाकाशे तत्कथम् इत्याशङ्कां समाधातुं प्रयोगविस्रसापरिणामजनितामनेकप्रकारां सार्वलौकिकीमन्यद्रव्येषु असम्भाविनी क्रियामारभमाणानां जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योरूपग्राहकोतावद् धर्माधर्मी चक्षुषोदर्शनशक्तरूपग्राहकसूर्यरश्मिवदिति कार्यतो धर्माधर्मयोः सकललोकव्याहैं-कालद्रव्य का अवगाह मनुष्यक्षेत्र में ही है, अन्यत्र नहीं ॥१४॥ मूलसूत्रार्थ— 'गइ ठिइ ओगाहाणं' इत्यादि ॥सूत्र १५॥ धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य क्रमशः गति, स्थिति और अवगाहना के निमित्त कारण हैं ॥१५॥ तत्त्वार्थदीपिका-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, इन छहों द्रव्यों के लक्षण क्रमशः प्रतिपादन करने के लिए प्रथम धर्म, अधर्म आकाश का लक्षण कहते हैं-धर्मद्रव्य गति का, अधर्मद्रव्य स्थिति का और आकाशद्रव्य अवगाहना का निमित्त है ॥१५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति—पहले सामान्य रूप से धर्म आदि द्रव्यों का निर्देश किया गया है, अब उनका लक्षण बतलाते हैं । अथवा धर्म और अधर्म द्रव्य के असंख्यात प्रदेश तुल्य होने पर भी वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, असंख्यातवें भाग आदि में नहीं। इस प्रकार उनका अवगाह लोक में ही है, अलोक में नहीं, ऐसा क्यों है ? इस शंका का समाधान करने के लिए कहते है-छह द्रव्यों में से केवल जीव और पुद्गलद्रव्य में ही गतिक्रिया होती है, अन्य किसी द्रव्य में नहीं । वह गतिक्रिया प्रयोग परिणाम से भी होती है और विलसा (स्वभाव) परिणाम से भी होती है । इस गतिक्रिया में धर्म और अधर्म उसी प्रकार सहायक होते हैं जैसे सूर्य की किरणें नेत्रों के देखने में सहायक होती हैं । गतिक्रिया समस्त लोक में देखी जाती है, अतएव अनुमान प्रमाण से यह निश्चय हो जाता है कि धर्म और अधर्मद्रव्य भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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