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________________ २०० तस्वार्थसूत्रे अत्रेदं बोध्यम्-संख्यामतीता असंख्येया उच्यन्ते, असंख्येयश्च-त्रिविधः प्रज्ञप्तः । जघन्यः उत्कृष्टः, अजघन्योत्कृष्टश्च, तत्र-जघन्योत्कृष्टोऽसंख्येयः प्रकृतसूत्रे गृह्यते, प्रदेशश्च-प्रदिश्यते इति व्युत्पत्या परमाणुर्यावति क्षेत्रे व्यवतिष्ठते स उच्यते, धर्माधर्मलोकाकाशैकजीवास्तुल्या संख्येयप्रदेशा भवन्ति । उक्तञ्च स्थानाङ्गे ४ स्थाने ३ उद्देशे ३३४ सूत्रे -"चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला असंखेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे-" इति । छायाचत्वारः प्रदेशकेन तुल्या असंख्येयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः लोकाकाशः, एकजीव इति । तत्र--धर्माधौं तावत् निष्क्रियौ लोकाकाशं व्याप्य स्थितवन्तौ, जीवस्तावत्-प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशोऽपि सङ्कोचविकासस्वभावत्वात् कर्मनिष्पादितं शरीरमणुमहद्वाऽधितिष्ठन् तावदवगाह्य वर्तते । यदा-पुनर्लोकपूरणं भवति । तत्र चतुर्भिः समयैर्लोकपूरणं करोति, चतुर्भिः समयैः संहरन्ति, एवं रीत्या लोकपूरणेऽष्टौ समया लगन्ति ॥६॥ म्लसूत्रम्--"अलोगागासजीवाणमणंता--" ॥७॥ छाया--"अलोकाकाशजीवानामनन्ताः-" ॥ ७ ॥ इसी प्रकार जीवों और अजीवों के आधार क्षेत्र रूप लोकाकाश के भी असंख्यात ही प्रदेश होते है, न संख्यात होते है न अनन्त होते है। मगर सम्पूर्ण लोक आलोक रूप आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं, न संख्यात और न असंख्यात प्रदेश होते है यह बात अगले सूत्र में कहेंगे। ___ यहाँ इतना समझ लेना चाहिए-जो संख्या से अतीत-बाहर हों वे असंख्येय कहलाते हैं असंख्यात के तीन भेद हैं -(१) जघन्य (२) उत्कृष्ट और (३) अजघन्योत्कृष्ट याने मध्य में । इस सूत्र में जघन्योत्कृष्ट असंख्यात ग्रहण किया है। जितने क्षेत्र को परमाणु घेरता है, उतना क्षेत्र आकाश का. एक प्रदेश कहलाता है। धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के असंख्यात प्रदेश बराबर-बराबर हैं । स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के तीसरे उद्देशक के ३३४ वें सूत्र में कहा है-प्रदेशों के परिमाण की अपेक्षा से चार द्रव्य समान हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोककाश और एक जीव । इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्य क्रिया रहित है और सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त करके स्थित हैं। प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशी होता हुआ भी संकोच-विस्तार स्वभाव होने के कारण नामकर्म के द्वारा निष्पन्न छोटे या मोटे शरीर में रहता हुआ उसी को अवगाहन करके रहता है। केवलिसमुद्घात के समय चारं समयों में अर्थात् चौथे समय में सम्पूर्ण लोक को व्याप्त कर लेता है और फिर चार समयों में फैले हुए प्रदेशों को सिकोड़ लेता है। इस प्रकार केवलिसमुद्घात में आठ समय लगते हैं ॥६॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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