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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ०२ सू० ४ पुद्गलद्रव्यस्य रूपित्वनिरूपणम् १८९ ते च पुद्गला रूपिणो भवन्ति रूपमस्ति एषामेषु वा - इति रूपिणः, रूपवन्त इत्यर्थः पूरणाद - गलनाच्च पुद्गलाः परमाणुप्रभृतयोऽनन्तानन्तप्रदेशस्कन्धपर्यवसाना अवमन्तव्याः । त एवाऽनेकरूपपरिणतिसामर्थ्यापादितसूक्ष्म - स्थूलविशेषाऽविशेषप्रकर्षाऽप्रकर्षवर्तिनीमनन्यसाधारण रूपवत्तां धारयन्ति, न तु धर्माधर्मादिद्रव्यविशेषा इति पुद्गलेषु रूपवत्त्वमवधार्यते तथाचरूपवत्त्वं तावत् न कदाचित् अतिदीर्घकालपरिचितपरमाणुव्यणुकादिक्रम वृद्ध पुद्गलद्रव्यकलापं जहाति सामर्थ्याच्च पुद्गलद्रव्याण्यपि न रूपवत्तां परित्यज्य कदाचिदपि वर्तन्ते तस्मात् - पुद्रला एव रूपिणो भवन्तीति सम्यगुच्यते । तत्र - चक्षुग्रहणलक्षणं रूपमस्ति एषां परामणुव्यणुकादिक्रमभाजां पुद्गलानामिति रूपिण इति विग्रहेण षष्ठीप्रदर्शनात् भेदविवक्षावशाल्लब्धं द्रव्यगुणयोर्नानात्त्वमवगन्तव्यम्. अभेदविवक्षावशपरिप्रापितञ्च द्रव्यपर्याययोरैक्यं भवति इत्यभिप्रायेण रूपमस्ति एषु वा इति व्यापकाधिकरणलक्षणं सप्तमीमाश्रित्य विग्रहः क्रियते । अथवा - द्रव्यार्थिकनयापेक्षः पर्यायार्थिकनयापेक्षश्च भेदोऽभेदश्च द्रव्यगुणयोरवगन्तव्यः न हि - रूपात्मक मूर्तिव्यतिरेकेण पुद्गलाः समुपलभ्यन्ते भिन्नदेशसम्बन्धित्वेनाऽनुपलब्धेरित्युभयोरभेदः एवँ यद् इदं चन्दनमुपलभ्यते तस्य श्वेतं रूपं तितो रसः सुरभिर्गन्धः -शीतलः स्पर्शः इति व्यवहारो भेदे एव सम्भवति । वे पुद्गल रूपी अर्थात् रूप वाले है। पूरण और गलन स्वभाव वाले होने से वे परमाणु से लेकर अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्ध तक जानने चाहिए । पुद्गल अनेक रूप परिणमन के अपने सामर्थ्य के कारण सूक्ष्म, स्थूल, विशेष, अविशेष, प्रकर्ष, अपकर्ष रूप असाधारण रूपवत्ता को धारण करते हैं । धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों में यह बात नहीं है इस कारण पुद्गलों में रूपवत्त्व का अवधारण किया गया है । पुद्गल चाहे परमाणु हो या द्वयणुकादि रूप में बढ़ कर बड़ा स्कंध बन जाय, मगर रूपवत्व पुद्गल का त्याग नहीं करता और पुद्गलद्रव्य कभी रूपवत्ता का परित्याग नहीं करते । अतएव यह ठीक ही कहा गया है कि पुद्गल रूपी होते हैं । चक्षुग्राह्य रूप जिन परमाणु द्वयणुक आदि पुद्गलों का हो वे रूपी कहलाते हैं, इस प्रकार का विग्रह करके षष्ठी विभक्ति दिखलाने से यह सूचित किया गया है कि भेद विवक्षा से द्रव्य और गुण में भिन्नता है । अगर दोनों में अभेद की विवक्षा की जाय तो अभेद भी है । इस अभिप्राय से 'रूप जिनमें है वे रूपी' ऐसा सप्तमी विभक्ति को लेकर विग्रह किया गया है । अथवा द्रव्य और गुण में पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से भेद और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अभेद समझना चाहिए । रूपात्मक मूर्ति से भिन्न पुद्गल कहीं उपलब्ध नहीं होते- दोनों भिन्न भिन्न देशों में नहीं पाये जाते, अतः उनमें अभेद है । इसी प्रकार यह जो व्यवहार होता है कि चन्दन का रूप श्वेत है, रस तिक्त है, गंध सुरभि है, स्पर्श शीतल है, यह भेद होने पर ही संभव है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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