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________________ दोषिकानियुक्तश्च अ. २ सू० ३ षडपि द्रव्याणि नित्यावस्थितानीति प्ररूपणम् १८५ पग्रहमूर्तत्वादयो भूतार्थत्वं बोध्यम् । अथवा असंख्येयादिप्रदेशानादिपरिणामस्वभावत्वं का भूतार्थत्वं मूर्तत्वञ्चेति । ताञ्च मर्यादामनादिकालप्रसिद्धिवशोपनीता नातिक्रमन्ति धर्मादिद्रव्याणि। तस्मात्स्वगुणं परित्यज्य नान्यदीयगुणसम्परिग्रहमेतानि आश्रयन्ति, अतएवेतानि अवस्थितानि व्यपदिश्यन्ते । तेषु च--षट् द्रव्येषु पुद्गलव्यतिरिक्तानि पञ्चद्रव्याणि धर्मादीनि अरूपाणि भवन्ति.. पुद्गलव्यतिरिक्तानामेव धर्मादि पञ्चद्रव्याणाममूर्तत्वात् , चक्षुर्ग्रहणलक्षणं रूपम् अविद्यमानत्वं येषां तान्यरूपीणि । अरूपत्वादेव नैतानि चक्षुषा गृह्यन्ते इति, न तु-एतेषां चक्षुषाऽगृह्यमाणत्वमरूपत्वे हेतुरुच्यते, तथासति-पुद्गलपरमाण्वादिषु अरूपत्वापत्तिः स्यात् तस्मात्-धर्मादिषु पञ्चसु अरूपत्वप्रतिपादनम् , रूपन्तावत्-मूर्तिरुच्यते, मूर्ति रेव रूपादिशब्दैरभिधीयते, सा च मूर्तिः- रूपादिसंस्थान परिणामा भवति न तु-वैशेषिकाभिमता, असर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणा मूर्तिरूपादेया, सर्वतः परिमितत्वे लोकस्य-आत्मनोऽपि मूर्तिमत्वापत्तिः स्यात् । ___ लोकस्य विशिष्टसंस्थानत्वादिभिः परिमितत्वं वैशेषिकैरपि अवश्यमभ्युपगन्तव्यम् । तस्मात्का स्वरूप अवगाह प्रदान करता है । जीव का स्वरूप स्व-पर प्रकाशक चैतन्यरूप परिणाम है । पुद्गल का स्वरूप शरीर, वचन, मन, प्राणापान, जीवन, मरण में निमित्त होना तथा मूर्त्तत्व आदि है। धर्मादि द्रव्य अनादिसिद्ध अपनी अपनी इस स्वरूपमर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते हैं। कोई भी द्रव्य अपने स्वाभाविक गुण का परित्याग करके अन्य द्रव्य के गुण को धारण नहीं करते इस कारण ये द्रव्य अवस्थित कहलाते हैं । यह पहले ही कहा जा चुका है कि छह द्रव्यों में से पुद्गल को छोड़ कर शेष पाँच द्रव्य अरूपी अर्थात् अमूर्त हैं । ___ धर्म पुद्गल के सिवाय धर्म आदि पाँच द्रव्य अमूर्त होने के कारण अरूपी हैं-उनमें रूप नहीं है और रूपी न होने के कारण वे नेत्र के द्वारा देखे नहीं जा सकते । धर्म आदि द्रव्यों के नेत्र ग्राह्य न होने में अरूपित्व को हेतु नहीं कहा है, अन्यथा पुद्गल परमाणु भी नेत्रगोचर नहीं होता तो उसे भी अरूपी मानना पड़ेगा । मगर वह अरूपी नहीं है, इस प्रकार धर्म आदि पाँच द्रव्यो में ही अरूपत्व का प्रतिपदन किया गया है। रूप का अर्थ मूर्ति ! मूर्ति ही रूपादि शब्दों के द्वारा कही जाती है । वह मूर्ति रूपादि संस्थान (आकार) वाली होती है । वैशेषिक, द्रव्य का सर्वव्यापक न होना मूर्तत्व मानते है अर्थात उनके कथन के अनुसार मूर्ति वह है जो सर्वव्यापि परिमाण वाला न हो; मगर यह मान्यता यहाँ स्वीकार नहीं की गई है, क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा भी मूर्तिक हो जाएगी। लोक सब ओर से परिमित है. अतः आत्मा भी परिमित ही है।। . लोक परिमित हैं, यह वैशेषिकों को भी स्वीकार करना चाहिए क्योकि उसका एक विशिष्ट आकार हैं। इस कारण रूप को मूर्ति मानना ही निर्दोष है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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