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________________ १८२ तस्व मूलसूत्रम् - "निच्चावद्वियाणि अरुवाणि य-" ॥३॥ छाया - " नित्यावस्थितानि - अरूपाणि च ॥३॥', तत्वार्थदीपिका - धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवात्मकानि षडपि द्रव्याणि नित्यावस्थितानि भवन्ति, नैतानि कदाचिदपि न सन्तीति न चाऽन्ये तत्तथा परिणमन्ति, तत्रापि धर्माऽधर्माssकाशकालजीवात्मकानि पञ्च द्रव्याणि अरूपीणि- रूपरसादिरहितानि भवन्ति । तथा च धर्मादीनां षण्णामपि द्रव्याणां नित्याऽवस्थितत्वम्, पुद्गलव्यतिरिक्तानां धर्मादीनां पञ्चानां द्रव्याणान्तु रूपरसादिशून्यत्वं भवतीति भावः || ३|| तत्वार्थनिर्युक्तिः- पूर्वसूत्रे धर्मादीनि षड् द्रव्यणि प्रतिपादितानि सम्प्रति- तानि द्रव्यणि किं कदाचित् स्वभावात् प्रच्युतानि भवन्ति ततोऽधिकानि वा किं भवन्ति ? तानि किं मूर्तानिअमूर्तानि वा ? इति प्रश्नत्रयं समाधातुमाह-निच्चावट्टियाणि अरूवाणि य-" इति । धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि नित्यावस्थितानि भवन्ति, तत्र - नित्यपदोपादानात् धर्मादीनां स्वभा व तू अप्रच्युतिरुच्यते, अवस्थितिपदोपादानाच्च तेषां षड्वाद अन्यूनानधिकत्वमाख्यायते, अनादिनिधने यत्ताभ्यां तानि न कदाचित् स्वतत्त्वं परित्यजन्ति तेषु च - पुद्गलव्यतिरिक्तानि धर्मादीनि पञ्चद्रव्याणि - अरूपाणि । स्तिकाय और आकाश, ये तीन द्रव्य एक-एक रूप है और काल, पुद्गल तथा जीव, ये तीन द्रव्य अनन्त - अनन्त हैं || सू० २ | ' -निच्चावद्वियाणि' इत्यादि ॥ | सूत्र || ३ || मूलसूत्रार्थ — पूर्वोक्त द्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी हैं ||३|| तत्त्वार्थदीपिका - धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, ये छहीं द्रव्य नित्य और अवस्थित हैं । इनमें से कभी कोई न हो, ऐसा नहीं है अर्थात् ये सदैव रहते हैं और एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के रूप में भी परिणत नहीं होता है । इनमें से धर्म अधर्म, आकाश, काल और जीव, ये पाँच द्रव्य अरूपी हैं अर्थात् रूप - रस आदि से रहित हैं । इस प्रकार छहों द्रव्य नित्य और अवस्थित हैं तथा पुद्गल के सिवाय शेष पाँच द्रव्य अरूपी हैं ||३|| I तत्वार्थनियुक्ति पूर्वसूत्र में धर्म आदि छह द्रव्यों का प्रतिपादन किया गया है, अब ये द्रव्य क्या कभी अपने-अपने स्वभाव से च्युत होते हैं ? क्या कभी न्यूनाधिक होते हैं ? ये मूर्त हैं या अमूर्त हैं ? इन तीन प्रश्नों का समाधान करने के लिये कहते हैं धर्म आदि छहों द्रव्य नित्य और अवस्थित हैं । नित्य का अर्थ यह है कि ये द्रव्य कभी अपने-अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करते और अवस्थित का आशय यह है कि इन की संख्या कमी न्यूनाधिक नहीं होती अर्थात् ये सभी द्रव्य अनादिनिधन हैं और नियत संख्या वाले हैं कभी अपने स्वरूप का त्याग नहीं करते हैं । इनमें पुद्गल के सिवाय पाँच द्रव्य अरूपी है ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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