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________________ तत्कार्यसूत्रे पिण्डातिरिक्त वृत्त्यन्त शवस्थाप्रकाशक्तादशायां नायते इति व्यवहारः । स व्यापारे च भवनवृत्ति:. अस्तीत्यनेन निर्व्यापारात्मकता - उच्यते, भवनवृत्तिरुदासीना, विपरिणमते इत्यनेन पुनस्तिरोभूतात् प्ररूपस्याऽमुच्छिन्नतयाऽनुवृत्तिकस्य रूपान्तरेण भवनमुच्यते । यथा - दुग्धं दधिभावेन परिणमति विकारान्तरवृत्या भवनमवतिष्ठते वृत्त्यन्तरव्यक्तिवृत्तिः सुभाववृत्तिर्वा परिणाम आख्यायते, वर्धने इत्यनेन तु उक्तस्वरूपः परिणामः उपचयेन प्रवर्तते, rest वर्धते, उपचयशालिपरिणामरूपेण भवनवृत्तिर्व्यज्यते, अपक्षीयते इत्यनेन पुनः पूर्वोतस्वरूपस्यैव परिणामस्याऽपचयवृत्तिराख्यायते, २०८ दुर्बलतामासादयत् पुरुषवदपचय भवनरूपमृत्यन्तरव्यक्तिरुच्यते । विनश्यतीत्यनेन भवनवृत्ते - राविर्भूततिरोभवनमाख्यायते, यथा-घटो विनष्ट इत्यनेन प्रतिविशिष्टसमवस्थानात्मिका भवनवृतिस्तिरोभूता, न तु अस्वभावतैव संजाता, कपालाद्यु त्तरभवन वृत्त्यन्तरक्रमावच्छिन्नरूपत्वाद् इत्येव - मादिभिराकारैद्रव्याण्येव भवनलक्षणानि व्यपदिश्यन्ते इति भावः हुए पुरुष के समान । अर्थात् जैसे पुरुष की ये अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, मगर सब अवस्थाओं में पुरुष ज्यों का त्यों वही रहता है, इसी प्रकार पर्यायों के पलटते रहने पर भी मूलद्रव्य एक रूप ही बना रहता है । यही बात यों भी कही जाती है - उत्पन्न होता है, पलटता है बढ़ता है, घटता है और बिनष्ट भी होता है । " पिंण्डातिरिक्त वृत्यन्तर—अवस्था - प्रकाशता की दशा में 'जायते' (उत्पन्न होता है) ऐसा व्यवहार होता है; व्यापार सहित होने पर भवनवृत्ति होती है । 'अस्ति ' (है) इससे व्यापार शून्य सत्ता कही जाती है, भवनवृत्ति उदासीन है, विपरिणमते' (पलटता) है) इसके द्वारा अनुवृत्ति वाली वस्तु का रूपान्तर से होना कहा जाता है । I जैसे दूध दधि रूप से परिणत होता है, यहाँ विकारान्तरवृत्ति से 'भवन' कायम रहता है । जो व्यक्त्यन्तर व्यक्तिवृत्ति हो या हेतुभाववृत्ति हो वह परिणाम कहलाता है । 'वर्धते' यहाँ उक्त स्वरूप वाला परिणाम उपचय रूप में प्रवृत्त होता है, जैसे अंकुर बढ़ता है अर्थात् उपचयशाली परिणाम रूप से ‘भवन' की वृत्ति व्यक्त होती है । 'अपचीयते' (घटता है) इस शब्द से पूर्वोक्त स्वरूप वाले परिणाम की अपचयवृत्ति प्रकट की जाती है- दुर्बलता को प्राप्त होने वाले पुरुष के समान अपचय भवन रूप नवीन वृत्ति का प्रकट होना कहा जाता है । विनश्यति' इस पद के द्वारा भवनवृत्ति का आविर्भूम - तिरोभाव कहा जाता है । जैसे घट विनष्ट हो गया, इस वाक्य का अर्थ यही है कि विशिष्ट समवस्थान रूप भवनवृत्त तिरोहित हो गई (छिप गई) इसका आशय यह नहीं कि कोई स्वभावहीनता उत्पन्न हो गई--शून्यता आ गई; क्योंकि घटआकार के पश्चात् कपाल आदि रूप नवीन भवनवृत्ति देखी जाती है । इत्यादि आकारों के द्वारा द्रव्य ही भवन लक्षण वाले कहलाते हैं ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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