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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू०१ । अजीवतत्वनिरूपणम् १७५ पुद्गलद्रव्यस्य पुनरवयवबहुत्वमवगन्तव्यम् । तथा च बह्ववयवं पुद्गलद्रव्यमवसेयम्, संख्येयप्रदेशः स्कन्धः,-असंख्येयप्रदेशः, अनन्तप्रदेशः,-अनन्तानन्तप्रदेशश्चेति । अथ परमाणोरपि पुद्गलद्रव्यत्वेन तस्याऽपि बह्ववयवत्वं स्यात् , परमाणोरपि-एकरसगन्धवर्णत्वस्य द्विःस्पर्शस्य प्रसिद्धत्वात् ? अत्रोच्यते-परमाणुरपि भावावयवैः सावयवो द्रव्यावयवैस्तुनिरवयवो भवति । उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवतीसूत्रे २०-शतके ४-उद्देशके "कइविहे गं भंते ! भावपरमाणू पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे भावपरमाणू पण्णत्ते, तं जहा-वण्णमंतेरसमंते-गंधमंते-फासमंते-” इति । क तविधो भदन्त ! भावपरमाणुः प्रज्ञप्तः ? गौतम ? चतुर्विधो भावपमाणु: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वर्णवान् --रसवान्-गन्धवान्-स्पर्शवान-इति । तस्मात्-वर्णाद्यवयवैः परमाणुपुद्गलद्रव्यस्यापि बह्ववयवत्वमवगन्तव्यम् । अतएव-अजीवेषु चत्वारएवाऽस्तिकायाः प्रतिपादिता-यथा-१-धर्मास्तिकायः २-अधर्मास्तिकायः ३-आकाशास्तिकायः ४-पुद्गलास्तिकायश्चेति जीवास्तिकायेन सह पञ्चाऽस्तिकायाः सन्ति न तु-कालास्तिकायः केनापि शास्त्र कृता प्रतिपादितः तथाचोक्तम्-स्थानाङ्गे४-स्थाने १उद्देशके-"चत्तारि अस्थिकाया अजीबकाया पण्णता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मअनन्त प्रदेश वाला है । अद्धासमय एक समयरूप काल के न असंख्यात प्रदेश हैं और न अनन्त प्रदेश हैं। पुद्गल द्रव्य बहुत अवयवों वाला होता है । कोई पुद्गल बहुत अवयवों वाला कोई संख्यात प्रदेशों वाला, कोई असंख्यात प्रदेशों वाला कोई अनन्त प्रदेशों वाला और कोई अनन्तानन्त प्रदेशों वाला होता है ।। शंका-परमाणु भी पुद्गल द्रव्य होने के कारण बहुत अवयवों वाला होना चाहिए। उसमें एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्शो का होना प्रसिद्ध हैं। समाधान-परमाणु भाव-अवयवों की अपेक्षा सावयव है और द्रव्य-अवयवों की अपेक्षा निरवयव है । भगवती सूत्र शतक २०; उद्देशक ५ में कहा है प्रश्न- भावपरमाणु कितने प्रकार का है ? उत्तर- गौतम ! चार प्रकार का भावपमाणु कहा है-वर्णवान् , रसवान् , गंधवान् और स्पर्शनवान् । इस प्रकार वर्णादि रूप अवयवों की अपेक्षा परमाणु पुद्गल द्रव्य भी बहुत अवयवों वाला समझना चाहिए । अतः अजीवों में अस्तिकाय चार हैं--(१)धर्मास्तिकाय(२)अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय और (४) पुद्गलीस्तकाय । इनमें जीवास्तिकाय को मिला दिया जाय तो पाँच अस्तिकाय हो जाते हैं। किसी भी शास्त्रकार ने कालास्तिकाय का प्रतिपादन
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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