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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ.१ नवतत्वनिरूपणम् ११ नियुक्तिः-त्रैविध्येन तावद् शास्त्रस्य प्रवृत्तिर्भवति । उद्देशतः-लक्षणतः-परीक्षणतश्च । तत्र-पदार्थानां नाम्ना संकीर्तनम् उद्देशः, पदार्थानामसाधारणधर्मकथनम्, लक्षणं परीक्षणन्तु लक्षितस्य लक्षणमिदं युज्यते न वा-३ इति वचनं बोध्यम् । . तत्र-जीवादिपदार्थानां नाम्ना स्वरूपनिर्देशरूपं संकीर्तनं प्रथमसूत्रेण प्रतिपादितम् , सम्प्रति-नवानामपि जीवादिपदार्थतत्त्वानां क्रमशो लक्षणानि निर्वस्तुं प्रथमं जीवस्य लक्षणमाह___"उवओगलक्षणो जीवो.” इति । उपयोगलक्षणः-उपयोगः-विवक्षितार्थपरिच्छेदरूपार्थग्रहणल्यापाररूपः, लक्षणं-असाधारणधर्मो यस्य स उपयोगलक्षणो जीवः भावजीव इत्युच्यते । तथा च जीवस्तावद् प्रथमं द्विविधः द्रव्यजीवो-भावजीवश्च । तत्र-गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो द्रव्यजीव उच्यते । भावजीवः पुनः औपशमिक-१ क्षायिक-२ क्षायोपशमिक-३ औदयिक-४ पारिणामिक ५ भावयुक्तः उपर्युक्तोपयोगलक्षणो व्यपदिश्यते। स पुनर्द्वि विधः संसारी-मुक्तश्चति । तथा च -- उक्तविधोपयोगलक्षणस्य जीवात्मनो ज्ञानरूपे दर्शनरूपे च द्विविधेऽपि व्यापारे तत्त्वार्थनियुक्ति-शास्त्र की प्रवृत्ति तीन प्रकार से होती हैं उद्देश से, लक्षण से और परीक्षा से वस्तुओं के नाममात्र को कह देना उद्देश कहलाता है उनके असाधारण धर्म का कथन करना लक्षण है और जिसका लक्षण कहा है उसका वह लक्षण उचित है या नहीं इस बात का विचार करना परीक्षा है। प्रथम सूत्र में जीवादि पदार्थों का नाम निर्देश किया जा चुका है। अब जीवादि नौ पदार्थों का अनुक्रम से लक्षण बतलाने के लिए सर्वप्रथम जीव के लक्षण का कथन किया जाता है। ___ जीव उपयोग लक्षण वाला है । यहाँ उपयोग का अर्थ है किसी पदार्थ को जानना रूप व्यापार । यह उपयोग जिसका असाधारण धर्म है अन्य किसी में भी न पाया जाने वाला गुण है वही भावजीव कहलाता है - जीव के प्रथम दो भेद हैं-द्रव्यजीव और भावजीव ! जो गुण और पर्याय से रहित हो प्रज्ञा में स्थापित किया गया हो अर्थात् वास्तव में न होने पर भी जो केवल कल्पना से मान लिया गया हो, ऐसा पारिणामिक भाव से युक्त जीव द्रव्यजीव कहलाता है । (वास्तव में कोई भी जीव, चाहे वह संसारी हो अथवा मुक्त हो कभी भी अपने गुण और पर्याय से रहित नहीं हो सकता । कोई न कोई गुण और पर्याय उसमें सदैव विद्यमान रहता है । फिर भी द्रव्य का भंग शून्य न रहे, इस प्रयोजन से ऐसी कल्पना कर ली जाती है, जो जीव औपशमिक भावों से युक्त है और जिसमें उपयोग लक्षण पाया जाता है, वह भावजीव कहलाता है। उसके दो भेद हैं- संसारी और मुक्त । .... उपयोग लक्षण वाले जीव का ज्ञानरूप और दर्शनरूप-दोनों प्रकार के व्यापार में चैतन्य
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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