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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ सू. ४१ नारकादीनामायुः स्थितिनिरूपणम् १६९ फलं कर्तरि-उपाघाय परिशटत्युत्तरकालम्, न तु-फलमदत्वैव विलीनं भवति, "कडाणकम्माणन मोक्खअत्थि-,, इति वचनात् । एवमायुष्केऽननुभूते सत्येव यदि म्रियते, तदा-ऽकृतमरणाभ्यागमोऽन्तगले एव प्रसज्येत येन सत्यायुष्के म्रियते ततश्चायुषो वैफल्यप्रसङ्गः । ___अनिष्टं चैतत् , न खल्वयं जैनसिद्धान्तः यत् कृतकर्माऽदत्तफलमेव प्रणश्यति अकृतमेव चानुभूयते । किञ्च-एकभवस्थितिकमायुष्कं कर्म न जात्यन्तरानुबन्धिभवति अर्थात्--एकस्मिन्नेव भवेआयुष उपभोगो भवति न भवान्तरे । त्वदभ्युपगमानुसारं सत्येवायुषि चेम्रियते, तदा तेनैवायुषा जात्यन्तरानुबन्धिना भवितव्यम् । ___उक्तश्चैतत्- तस्मान्नापवर्तनमायुषोऽस्तीति चेत् अत्रोच्यते आयुषः स्वल्पीभवनमेवाऽपवर्तनम् , न तु--विनाशरूपमपवर्तनम् । तथाच-आयुषो हासरूपेऽपवर्तने सत्यपि कृतनाशा-ऽकृतनाशाभ्यागभादयो दोषा न सम्भवन्ति, नापि-आयुष्कं भवान्तरानुबन्धि च सम्भवति अपितु-पूर्वोक्तरूपैरुपक्रमै रुपलिप्तस्य जीवस्य सर्वात्मना-उदयप्राप्तमायुष्कं कर्म झटित्येव प्राप्तविपाकं भवति शीघ्रमेव परिपच्यते प्रदेशत्वभोगरूपेण तदेवाऽपवर्तनमत्रोच्यते । अपना अनुरूप फल देकर ही निर्जीर्ण होता है, फल दिये बिना नहीं। शास्त्र में भी कहा है 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' अर्थात् किये हुए कर्मों के फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता । इस प्रकार यदि आयु का अनुभव किये बिना ही मृत्यु हो जाती है तो कृतनाश और अकृतागम दोषों का प्रसंग आता है, क्योंकि आयु की विद्यमानता में भी मरण हो जाता हैं । ऐसी स्थिति में आयु की विफलता का भी प्रसंग होता है । यह अनिष्ट है । जैन सिद्धान्त में ऐसा है भी नहीं कि उपार्जित किया कर्म फल दिये बिना ही नष्ट हो जाय और जो कर्म उपार्जन नहीं किया है उसे भोगा जाय । इसके अतिरिक्त एक ही भव की स्थिति वाला आयु कर्म दूसरे भव तक रह नहीं सकता; उसका उपभोग एक ही भव में होता है, भवान्तर में नहीं । अगर आप की मान्यता के अनुसार आयु के रहते भी जीव मर जाता है तो फिर अवशिष्ट आयु दूसरे जन्म में भोगनी पड़ेगी । इससे सिद्ध हुआ कि आयु का अपवर्तन नहीं होता। ___समाधान-धीरे-धीर लम्बे काल तक भोगने योग्य आयु को शीघ्र अल्पकाल में भोग लेना ही अपवर्तन कहलाता है । अपवर्तन का मतलब यह नहीं कि बद्ध आयु फल दिये घिना ही नष्ट हो जाय ! इस कारण आयु के वेदन काल में अल्पता हो जाने पर भी कृतनाश और अकृताभ्यागम दोषों का प्रसंग नहीं आता। आयु दूसरे भव में भोगी जाय, ऐसा भी नहीं होता । होता यह है कि पूर्वोक्त विष शस्त्र आदि उपक्रमों से उपलिप्त जीव के पूर्ण रूप से आयु उदय में आ जाता है, शीघ्र ही अपना फल प्रदान करता है, और प्रदेशोदय द्वारा शीघ्र ही उसका परिपाक हो जाता है। यही यहाँ अपवर्तन माना गया है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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