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________________ तत्त्वार्थसूत्र पुद्गला नाडिकाप्रविष्टत्वेन संहतिमत्वात् विषशस्त्रवह्नयादीनामभेद्या भवन्ति । मन्दतीत्रपरिणामसन्निधानाच्च स जीवस्तदायुर्जन्मान्तरे एव रचयति अत्रत्य जन्मव्याधिवत् । ____ अल्पाद् धातुवैषम्यनिदानपथ्यसेवनात् समुत्पन्नो व्याधिः कालान्तरेणोपेक्ष्यमाणोऽत्यन्तां वृद्धिमापन्नः सन् शरीरं चिरेण समूलघातमपहन्ति । निपुणवैद्यवरोपदिष्टतत्प्रत्यनीकक्रियाकलापानुष्ठानाच्च झटित्येव स व्याधिः बिनाशमापद्यते, एवमेव-मन्दपरिणामप्रयोगकारणाभ्यासाद् यद् आयुरतीतजन्मनि-अनेकजीवेनासादितं तदपवर्तनार्हमुच्यते । यस्तु-व्याधिः अतिमहान्तं धातुक्षोभमाश्रित्याऽपथ्यनिदानसेवनादिना सञ्जातः अतिदीर्घकालकलापापादितजठरिमसमुपगूढनिरवशेषाऽङ्गोपाङ्गसंघातकुष्ट-क्षयादिवत् स खलु दुश्चिकित्स्यो व्याधिर्भेषज्यजातमनेकधमुपचीयमानमपि उत्तरोत्तरमवगणय्य प्रवृद्धः सन् रोगिणं तम् अकाण्ड एव क्षिप्रमेव ग्रसति, न खलु प्रयत्नपरेणाऽपि धन्वन्तरिणा समुच्छेत्तुं शक्यते । एवमेव तीव्रपरिणामप्रयोगबीजजनितशक्तितद् आयुरतीतानेकजन्मनि-उपात्तमन्तरालेन शक्यं समुच्छेत्तुमिति तदपवर्तनीयं व्यपदिष्यते । तथहि-आयुषः काले-काले च समाप्तौ अनेको दृष्टो दृष्टान्तो भवन्ति । बलवत्वाच्च ततः श्रोतुः प्रतीति रुपजायते, तस्मात्-द्विविधमायु अपवर्त्य मनपवयं च व्यवस्थितम् । तत्र-के तावद् अवस्था को प्राप्त करके जीव जिन आयुष्क के पुद्गलों को बाँधता है, वे आयुष्कपुद्गल नाडिकाप्रविष्ट होने के कारण संहति रूप होते है, अतः विष, शस्त्र, अग्नि आदि के लिए अभेद्य होते हैं। मन्द-तीव्र परिणाम होने से वह जीव उस आयु को जन्मान्तर में ही बाँधता है, इस जन्म को व्याधि के समान । थोड़ी-सी धातुविषमता के कारणभूत अपथ्यसेवन से उत्पन्न हुआ रोग लापरवाही से कालान्तर में बहुत बढ़ जाता है और शरीर का समूल धात कर डालता है तथा निपुण वैद्य के द्वारा उपदिष्ट रोगविरोधी क्रियाकलाप के सेवन से वह व्याधि शिघ्र ही विनष्ट हो जाती है । इसी प्रकार जो आयु मन्द परिणाम--प्रयत्न के कारण पिछले भव में गाढी नहीं बाँधी गई है, वह अपवत्तेना के योग्य होता है। इसके विपरीत जो व्याधि अत्यन्त तीब्र धातुक्षोभ को आश्रित करके अपथ्य सेबन आदि से उत्पन्न हुआ है और कुष्ट-रोग अथवा क्षय के समान दीर्घकालिक हो जाने से शरीर के समस्त अंगोपांगों में व्याप्त हो गई है, उसकी चिकित्सा होना बहुत कठिन होता है । विविध प्रकार के औषधों का सेवन करने पर भी वह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं और रोगी को अकाल में ही निगल लेती है, अधिक से अधिक प्रयत्न करके धन्वन्तरि भी उस रोग को नष्ट नहीं कर सकता इसी प्रकार जो आयु तोब परिणाम-प्रयोग से प्रगाढ़ रूप में बँधा हुआ है, उसका अपवर्तन नहीं हो सकता--- वह शीघ्र समाप्त नहीं हो सकता। वह अपवर्तनीय आयु कहलाती है। आयु के यथाकाल और अकाल में समाप्त होने के अनेक दृष्टान्त विद्यमान हैं ।सबल होने के कारण श्रोता को प्रतीति उत्पन्न हो जाती है । अतएव आयु दोनों प्रकार का है
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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