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________________ १६० तत्वार्थसूत्रे यस्मात्तेषांनारकाणां सम्मूर्च्छनजन्मवताश्च चारित्रमोहनीयविशेषनोकषायवेदनीयनववि हास्याद्याश्रयेषु त्रिषु वेदेषु नपुंसक वेदनीयमेव - एकमशुभगतिनामापेक्षं पूर्वबद्ध निकाचितमुदयप्राप्तं भवति । न तु - स्त्रीपुरुषवेदनीये तेषां कदाचित् - उदयप्राप्ते भवतः । तथा च - नैरयिकाः सर्वे सम्मूर्च्छिनश्चाऽशुभगत्यादिनामगोत्रवेद्यायुष्कोदयापेक्षमहामोहोदयेनाऽशुभं महानगरदाहोपमं मैथु नाभिलाषमनुभवन्ति । सम्मूर्च्छनजन्मशालिनोऽपि तिर्यञ्चो मनुष्याश्चाऽशुभगत्यादिनामगोत्रवेद्यायुष्कोदयापेक्षमोहोदयाकाङ्क्षावन्तो नपुंसकत्वमनुभवन्ति । अनन्तरे पूर्वस्मिन् जन्मनि नपुंसकत्वयोग्यास्रवैः परिगृहीतं पूर्वबद्धनिकाचित ग्रहणानन्तरमात्मसात् कृतं क्षीरोदकवत् परस्परानुगतिलक्षणेन सम्बन्धेनाऽऽत्मप्रदेशैः सह विभागितयाऽध्यवसायविशेषात् व्यवस्थापितं समासादितपरिपाकावस्थरूपमुदयप्राप्तं नपुंसक वेदनीयमेव नारकसंम्मूच्छिमानां प्राणिनां दुःखबहुलत्वाद् भवति, न तु कदाचित् स्त्रीपुरुषवेदनीये इति भावः । उक्तञ्चसमवायाङ्गसूत्रे "नेरइयाणं भंते ! किं इत्थीवेया - पुरिसवेया - णपुंसगवेया पण्णत्ता ? गोयमा ! णो इत्थीवेया - णो पुंवेया-गपुंसगवेया पण्णत्ता, पुढवी - आउ - तेउ वाउ - वणस्सई बिि चउरिंदियसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्ख समुच्छिममणुस्सा ण पुंसगवेया" - इति । नैरयिकाः खलु भदन्त ! किं स्त्रीवेदाः पुरुषवेदाः नपुसकवेदाः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! नो स्त्रीवेदाः, नो पुंवेदाः, नपुंसकवेदाः प्रज्ञप्ताः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वि-त्रि चतुरिन्द्रियसम्मूर्च्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसम्मूर्च्छिममनुष्या नपुंसकवेदा इति ॥ ३९ ॥ स्त्रीवेद या पुरुषवेद का उदय नहीं होता । इस कारण सभी नारक और संमूर्छिम जीव अशुभ नगरदाह के समान मैथुन की अभिलाषा वाले होते हैं 1 अर्थात् ग्रहण करने आशय यह है कि नारकों और संमूर्छिम जीवों ने अनन्तर पूर्वभव में नपुंसकवेद के योग्य कर्म का आस्रव किया है, उस कर्म का निकाचित बन्ध किया है के पश्चात् दूध और पानी की तरह एकमेक करके ग्रहण किया है, वह कर्म आत्मप्रदेशों के साथ मिल गया है - उनसे पृथक नहीं मालूम पड़ता है । विशेष प्रकार के अव्यवसाय से उस कर्म का बन्ध किया है । वही कर्म अब वर्त्तमान भव में परिपाक को प्राप्त होकर उदयावस्था में आया है । इस कारण नारक और संमूर्छिम जीव दुःख की बहुलता वाले होने से नपुंसक ही होते हैं । वे कदापि स्त्री या पुरुष नहीं होते । 1 समवायांगसूत्र में कहा है- 'भगवन् ! नारक जीव क्या स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अथवा नपुंसकवेदी होते हैं ? 'गौतम ! स्त्रीवेदी नहीं होते, पुरुषवेदी भी नहीं होते, नपुंसकवेदी होते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच और सम्मूर्छिम पुरुष नपुंसक वेद वाले ही होते हैं" ॥३९॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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