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________________ तत्वार्थ कथं न कृतं सूत्रमिति, तथाविधसूत्ररचने हेतुवक्तव्यसापातो भवति.। यदि च-शिष्याणांतदन्येषां-जिज्ञासूनाश्च प्रस्तुतशास्त्रे प्रवृत्त्यर्थम्-संसारमोक्षकारणतया तत्रापि-संसारकारणस्य हेयतया-मोक्षकारणस्य च-उपादेयतया, आस्रवादीनां पश्चानां कथने परमावश्यकमित्युच्यते - तदा--तुल्ययुक्त्या पुण्य-पापयोरपि. हेयोपादेयतया सूत्रेऽवश्यवक्तव्यतापातो भवति, तस्मात्-नवानामेव जीवादिपदार्थतत्त्वानां सूत्रे कथनमावश्यकमिति निरवद्यम् । . तेषाञ्च - नवविधतत्त्वानां लक्षणतो-विभागतश्च विशदरूपे विवेचनं यथायथमने करिष्यते । यथा--"उपयोगलक्षणो जीवः" इत्येवं भावजीवस्य लक्षणं वक्ष्यते, स च-जीवो भेदोपभेदतो बहु प्रकारः-यथा-प्रथमं तावद् द्रव्यतो-भावतश्च द्विविधो जीवः, ततश्च-साकारोऽनाकारः संसारी--असंसारी त्रसाः-स्थावराश्च सूक्ष्माः--बादराः--पर्यायाः--अपर्यायाः । एवमजीवादीनामपि लक्षण---विभागश्चाऽग्रे वक्ष्यति ॥ सू०॥१॥ मूलसूत्रम्-"उवओगलक्षणो जीवो" ॥सू० २॥ छाया-उपयोगलक्षणो जीवः" ।सू. २॥ दीपिका—प्रथमसूत्रे जीवादिनवतत्त्वानां सामान्यतो निर्देशः कृतः सम्प्रति-तेषु नवतत्त्वेषु नवमाध्याय्यां प्ररूपणीयेषु प्रथमाध्याये प्रथमोपात्तं जीवतत्त्वं प्ररूपयितुमाह-"उवओगलक्षणो जीबो" इति । उपयुज्यते वस्तुस्वरूपपरिज्ञानार्थ वस्तु प्रति यः प्रेर्यते, स उपयोगः । है। ऐसी स्थिति में जीवाजीवास्तत्त्वम् अर्थात् जीव और अजीव यही दो तत्व हैं, ऐसा सूत्र रचना ही उचित था फिर ऐसा सूत्र क्यों नहीं रचा ? कदाचित् यह कहा जाय कि शिष्यों तथा अन्य जिज्ञासुओं को हेय उपादेय की शिक्षा देने के लिए अर्थात् आस्नव और बन्ध संसार के कारण होने से हेय हैं और संवर तथा निर्जरा मोक्ष के कारण होने से उपादेय हैं और मोक्ष तो मुख्य रूप से उपादेय है ही, यह समझाने के लिए उक्त पाँच तत्त्वों का पृथक् निर्देश किया गया है, तो यही युक्ति पुण्य-पाप के विषय में भी लागू होती है। पुण्य उपादेय और पाप हेय है, इस कारण उनका भी सूत्र में कथन करना आवश्यक है। - इन नौ तत्त्वों के लक्षण और भेद का सम्यक् विवेचन विस्तार पूर्वक आगे किया जाएगा जैसे-जीव का लक्षण उपयोग है, यह भावजीव का लक्षण कहा है। भेद प्रभेद की विवक्षा से जीव अनेक प्रकार का हैं। जैसे- प्रथम तो जीव द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का है। फिर साकार अनाकार संसारी असंसारी त्रस स्थावर, सूक्ष्म बादर, पर्याप्त अपर्याप्त आदि भेदों से अनेक प्रकार का है । इसी प्रकार अजीव आदि के भी भेद और लक्षण आगे कहेंगे।॥१॥ मूलसूत्र का अर्थ-जीव उपयोग लक्षण वाला है ॥२॥ तत्वार्थ दीपिकाका अर्थ-'उवओग लक्षणो' इत्यादि ॥२॥ प्रथम सूत्र में जीव आदि नौ तत्त्वों का सामान्य रूप से कथन किया गया है। नौ अध्यायों में नौ तत्त्वों का विवेचन करता है, इस कारण प्रथम अध्याय में पहले जीव तात्य की प्ररूपणा
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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