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________________ १४२ तरवार्थसूत्रे मानाऽग्निपुञ्जसदृशं दाह्य वस्तुपरिवेष्टयाऽवतिष्ठते । यदा तत्र चिरकालं तिष्ठति तदा-दाह्यं वस्तु भस्मसात् करोति, एतन्नि;सरणात्मकं तैजसं शरीरमवसेयम् । अनिःसरणात्मकं पुनरौदारिकवैक्रियाहारकशरीराऽभ्यन्तरवर्ति तेषां त्रयाणामपि-औदारिकादीनां दीप्तिहेतुकमवगन्तव्यम् ॥३४ । तत्त्वार्थनियुक्तिः-तेजोमयं तैजसं शरीरं द्विविधं प्रज्ञप्तम् लब्धिप्रत्ययं-सहजं च । तत्र-तपोर्विशेषजनिता शक्तिः लब्धिरुच्यते, तत्प्रत्ययं-तत्कारणकं तैजसं शरीरं लब्धिप्रत्ययमुच्यते इदश्च-प्रथमं तैजसं शरीरं तैजसशरीरलब्धिकारणसमुद्भुतशक्तितपोविशेषानुष्ठानात् कस्यचिदेव महात्मनो जीवस्य कदाचिद् भवति । न तु-सर्वस्य । उक्तश्च स्थानाङ्गे ३-स्थाने ३-उद्देशके “तिहिं ठाणेहि समणे निग्गंथे संखित्तविउलतेउलेस्से भवइ, तं जहा-आयावणयाए-१ खतिखमाए-२ अपाणगेणं तवोकम्मेणं"-इति । त्रिभिः स्थानैः श्रमणो निम्रन्थः संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यो भवति, तद्यथा-आतापनातः, क्षान्तिक्षमातः, अपानकेन तपःकर्मणा, इति । सहजन्तु-द्वितीयं तैजसं शरीरं रसाद्याहारपाकजनकं सर्वप्राणिविषयमभ्युपगन्तव्यम् । तस्मात्-सर्वजन्मसु सहजं तैजसं भवतीति ॥३४॥ मूलसूत्रम्-"आहारगं एगविहं, पमत्तसंजयस्स चेव"-॥३५॥ छाया-आहारकमेकविधम् , प्रमत्तसंयतस्यैव”–॥३५॥ वह जाज्वल्यमान अग्नि के पुंज के समान होता है । जिसे जलाना है उसे घेर कर वह रह जाता है । जब वहाँ चिरकाल तक ठहरता है तो उस जलाने योग्य वस्तु को भस्म कर देता है। इस प्रकार का तैजस शरीर निःसरणात्मक कहलाता है। दूसरा जो अनिःसरणात्मक तैजस शरीर है वह औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के भीतर रहता है और इन तीनों शरीरों की दीप्ति का कारण होता है ॥३४॥ तत्त्वार्थेनियुक्ति-तेजोमय या तेज का पिण्ड तैजस शरीर दो प्रकार का कहा गया है-लब्धिप्रत्यय और सहज । विशिष्ट प्रकार के तप से जो शक्ति उत्पन्न होती है, वह लब्धि कहलाती है। उसके निमित्त से उत्पन्न होने वाला शरीर लब्धि प्रत्यय तैजस शरीर कहा जाता है। ऐसा शरीर किसी-किसी महात्माओं को कभी-कभी ही प्राप्त होता है, सब को नहीं । स्थानांग सूत्र के तीसरे स्थानक, दूसरे उद्देशक में कहा है--निर्ग्रन्थ श्रमण तीन कारणों से अपनी विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त करता है-(१) आतापना लेकर (२) क्षमाभाव धारण करके और (३) चौबीहार तपस्या करके । दूसरा सहज तैजस शरीर समस्त संसारी प्राणियों को प्राप्त होता है और वह रस आदि आहार के परिपाक का कारण होता है । अर्थात् हम जो भोजन करते हैं उसे पचाना इसी तैजस शरीर का काम है ॥३४॥ मूलसूत्रार्थ-'आहारगं एगविह' ॥सत्र ३५॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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