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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू० ३३ समेदवैक्रिशरीरनिरूपणम् १३९ हंता पभू, अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू इत्थीरूवाई विउव्वित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुवतिजुवाणे हत्थेणं हत्थंसि गिहिज्जा चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवमेव गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंड निसिरइ, जाव दोच्चं वि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणित्ता पभू केवलकप्पं जम्बुदीवं दीवं बहू हिं इत्थीरूवेहिं आइण्णं वितिकिणं जाव करित्तए ? अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू तिरियमसंखेज्जदीवसमुद्दे भरिए जाव नो चेव णं संपत्तीए विउव्वंति वाविउव्विस्संति वा-" छाया-अनगारः खलु भदन्त- भावितात्मा बाह्यान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः एकं महत् स्त्रीरूपं वा, यावत् स्यन्दमानिकारूपं वा विकुर्वितुम् ? हन्त -- प्रभुः, अनगारः खलु भदन्त-! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः स्त्रीरूपाणि विकुर्वितुम् ? गौतम ! तद्यथानाम कश्चिद्युवा युवतिं हस्तेन हस्ते गृह्णीयात् चक्रस्य वा नाभिः अरकायुक्ता स्यात् एवमेव गौतम ! अनगारोऽपि भावितात्मा वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति, यावत्-प्रभुः । गौतम ! अनगारोऽपि भावितात्मा केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं बहुभिः स्वरूपैः आकीर्णम् - व्यतिकीर्णम् यावत्कर्तुम् । अथोत्तरं च गौतम ! प्रभुः तिर्यगसंख्येयद्वीपसमुद्रान् भत्तुं विकुळ यावत् नोचैब सम्पत्त्या विकुर्वति वा-विकुर्विष्यति वा इति । एवं चतुर्दशशतके-अष्टमोद्देशके चोक्तमू अस्थि णं भंते ! अव्वाबाहा देवा ? हंता-अत्थि, से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ -अव्वाबाहा देवा-अव्याबाहा देवा ? गोयमा ! पभू णं एवमेव अव्वाबाहे देवे-एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिव्वं देविइढिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं प्रश्न-भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके एक महान् स्त्री रूप की यावत् पालकी के रूप की विक्रिया करने में समर्थ है ? उत्तर–हाँ, समर्थ है, प्रश्न-भगवन् ! भावितात्मा अनगार कितने स्त्रीरूपों की विक्रिया करने में समर्थ होता है ? उत्तर-गौतम ! जैसे कोई युवा पुरुष किसी युवती के हाथ को अपने हाथ में ग्रहण करे अथवा चक्र की नाभि आरों से युक्त हो, इसी प्रकार हे गौतम ! भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजनों का दंड निकालता है । यावत् दूसरी वार वैक्रिय समुद्घात करके सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को बहुत-से स्त्रीरूपों से व्याप्त कर सकता है । इतना ही नहीं, वह तिर्छ असंख्यात द्वीपों और समुद्रों को भी स्त्रीरूपों से व्याप्त कर सकता है। यह भावितात्मा अनगार की विक्रिया करने की शक्ति बतलाई है, मगर कोई अनगार इतनी विक्रिया करता नहीं और करेगा भी नहीं ।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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