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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू. ३३ समेदवैक्रियशरीरनिरूपणम् १३७ जन्मनि भवम् औपपातिकं वैक्रिय शरीरं भवति । तन्निमित्तत्वात्-सहजम् तच्च-सामर्थ्यान्नारकदेवानामेव भवति, न तदन्येषाम् , । द्विविधं च तत् , भवधारकम्-उत्तरवैक्रियं च, तत्र-प्रथमं जघन्येनाऽङ्गलाऽसंख्येयभागप्रमाणम् उत्कृष्टेन च-पञ्चधनुशतप्रमाणम् । उत्तरवैक्रियञ्च-जघन्येनाअलासंख्येयभागप्रमितम् उत्कृष्टेन-योजनल झप्रमाणमवसेयम् । लब्धिप्रत्ययं च-वैक्रियं शरीरं तिर्यग्योनीनां-मनुष्याणां च भवति । तत्र तपोविशेषजनिता लब्धिरुच्यते, तत् प्रत्ययं तत्कारणमेतच्छरीरं भवति, अजन्मजमेतद् बोध्यम् । गर्भजन्मनामेव वा-इदमुत्तरकालं भवति । तथाच-तपोविशेषानुष्ठानात् भूयसां गर्भव्युत्क्रान्तिक-तिर्यङ्मनुष्याणां लब्धिप्रत्ययं वैक्रियं शरीरं भवति शेषतिर्यग्योनिजानां मध्ये नान्यस्य । वायोश्च वैक्रियं लब्धिप्रत्ययमेव भवतीति भावः उक्तश्च स्थानाङ्गसूत्रे १-प्रथमस्थाने १-उद्देशके ७५-सूत्रे "नेरइयाणं दो सरीरगा पण्णत्ता तंजहा-अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव, अभंतरए कम्मए, बाहिरए वेउव्विए, एवं देवाण-" इति । नैरयिकाणां द्वे शरीरे प्रज्ञप्ते, तद्यथाआभ्यन्तरं चैव, बाह्यं चैव, आभ्यन्तरं-कार्मणम्, बाह्यं वैक्रियम्, एवं देवानाम् । औपपातिके ४० सूत्रे चोक्तम्-“वेउब्वियलद्धीए" इति । वैक्रियलब्धिकम् ॥३३॥ यहाँ उपपात का आशय उपपातजन्म से है । जो वैक्रिय शरीर उपपातजन्म में हो, वह औपपातिक वैक्रिय शरीर कहलाता है । यह शरीर औपपातिक जन्म के साथ ही उत्पन्न हो जाता है, क्यो कि उसका कारण उपपात जन्म ही है। नारकों और देवों को ही औपपात्तिक वैक्रिय शरीर होता है, किसी भी अन्य प्राणी को नहीं होता। इसके भी दो भेद हैं-भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय । भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष की होती है । उत्तरवैक्रिय की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन को होती हैं । ...... लब्धिप्रत्यय वैक्रिय शरीर तिर्यंचों और मनुष्यों को होता है । लब्धि, तपस्या आदि से उत्पन्न होने वाली एक प्रकार की विशिष्ट शक्ति है जिसे ऋद्धि भी कहते हैं । उसके कारण जो वैक्रिय शरीर उत्पन्न होता है वह लब्धिप्रत्यय कहलाता है। यह शरीर जन्मजात नहीं होता बल्कि बाद में उत्पन्न होता है। विशिष्ट तप आदि के अनुष्ठान से बहुत से गर्भज तिर्यचो और मनुष्यों को लब्धिप्रत्यय वैक्रिय शरीर होता है । तिथंचो में अन्य किसी को नहीं होता । इसमें अपवाद एक ही है और वह यह कि वायुकाय को लब्धिप्रत्यय वैक्रिय शरीर भी होता है । स्थानांगसूत्र के प्रथम स्थान के प्रथम उद्देशक के ७५ पचोतर वे सूत्र में कहा है . नारक जीवों को दो शरीर होते हैं- आभ्यन्तर और बाह्य । आभ्यन्तर कार्मण शरीर और बाह्य वैक्रिय शरीर । इसी प्रकार देवों को भी येही दो शरीर होते. हैं। ... औपपातिक सूत्र के ४० वे सूत्र में कहा है-वैक्रियलब्धि से होने वाला. शरीर वैक्रिय कहा जाता है ॥३३॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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