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________________ दीपिकामियुक्तिश्च अ० १ सू. ३२ औदारिकशरीरस्य मेदकथनम् १३५ किञ्च-ग्राह्यादिधर्मयोगाद् गृह्यते-हस्ताक्यवैरिन्द्रियैर्वा, छिपते-परश्वादिना, भिद्यते-- नाराच-कुन्तादिना, दह्यते-वह्निसूर्यादिना, अपलियते महावायुवेगेन इत्येवमादिभिर्विदारणादुदारमुच्यते मांसास्थिस्नाय्वाद्यवयवबद्धत्वाच्च । वैक्रियादिषु च मांसास्थिग्राह्यादयो विशेषा न भवन्ति । किञ्च---स्थूलमेवो--दारमुच्यते, स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च, प्रधानं वा उदारम्, तीर्थभेण्डवदुदारं स्थूलमुच्यते । स्थूलत्वाद् भेण्डक्रवत् ऊर्व गतमुच्छायमुद्गतमतिप्रमाणत्वात् , पुष्टंशुक्रशोणितादिप्रचितस्वात् बृहत्-प्रतिक्षणं वृद्धियोगात् महच्च-योजनसहस्रप्रमाणावस्थितारोहणपरिणाहत्वात् , उदारमेवौदारिकमुच्यते। वैक्रियादीनां च परस्य–परस्य सूक्ष्मत्वान्नैबं सम्भवति इतिभावः।। उक्तञ्च प्रज्ञापनायां २१ एकविंशतितमे शरीरपदे--"ओरालियसरीरे गं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा-समुच्छिमे-गमक्क्कंतिए य” इति । औदारिकशरीरं खलु भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम्- गौतम- द्विविधं प्रज्ञाप्तम् तद्यथा-सम्मूछिमम् गर्भव्युत्क्रान्तिकञ्चेति ॥३२॥ इसके अतिरिक्त औदारिक शरीर ग्राह्य होने के कारण ग्रहण किया जा सकता हैं - हाथ आदि अवयवों के द्वारा भी ग्रहण किया जा सकता है और इन्द्रियों के द्वारा भी ग्रहण किया जा सकता है । परशु आदि के द्वारा उसका छेदन हो सकता है, बाण या भाले आदि के द्वारा भेदन हो सकता है अग्नि और सूर्य आदि के द्वारा जलाया जा सकता है, महावायु के वेग के द्वारा अपहृत हो सकता है । इत्यादि अनेक प्रकार से विदारण संभव होने से यह शरीर उदार या औदारिक कहलाता है इसके अतिरिक्त मांस, हड्डी, नसों आदि से बना हुआ होने के कारण भी इसे औदारिक कहते हैं । वैक्रिय आदि अन्य शरीर न तो मांस, हड्डी आदि के बने होते हैं और न उनका ग्रहण, विदारण, छेदन, भेदन आदि हो सकता है। ___अथवा जो स्थूल हो वह उदार कहलाता है । थोड़े प्रदेशों से बना होने पर भी यह बड़ा होता है। या उदार का अर्थ प्रधान भी है । प्रधान इस कारण कि इसी शरीर के द्वारा सकल संयम, तीर्थकरत्व, मुक्ति आदि की प्राप्ति हो सकती है । अथवा मिंडी के समान पोला होने से भी यह उदार कहा जाता है । उदार का अर्थ उँचा भी है-यह शरीर बडे परिणाम वाला होता है । या उदार अर्थात् पुष्ट, क्यों कि यह शुक्र-शोणित से उपचित होता है। यह बृहत् भी है, क्यों कि क्षण-क्षण में इसकी वृद्धि होती हैं । उदार का अर्थ बड़ा भी है, क्यो कि यह एक हजार योजन की अवगाहना वाला होता है । जो उदार है वही औदारिक कहलाता है बैक्रिय आदि शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते हैं, अतएव उनमें इस प्रकार की उदारता का संभव नहीं है । प्रज्ञापनासूत्र के २१ इक्कीस ३ शरीरपद में कहा है प्रश्न-भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का है ? उत्तर-गौतम ! दो प्रकार का है, यथा सम्भूष्ट्रिय और गर्मव्युत्क्रान्तिक ॥३२॥
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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