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________________ सत्कार्यसूत्रे पापम् — अशुभकर्म प्राणातिपातादिकमष्टादश विधपापम्, तदग्रे स्फुटी करिष्यते । पातयति दुर्गतावात्मानमिति पापपदव्युत्पत्तिः ५ आस्रवति - आगच्छति येन कर्मे स आस्रवः शुभाशुभकर्मादानहेतुः, भवागमनकारणमित्यर्थः ६; आस्रवनिरोधरूपः संवरः येनात्मनि प्रविशत् कर्म निरुध्यते, सत्रिगुप्त - पञ्चसमित्यादिः संवर इत्युच्यते इति भावः आस्रवं स्रोतसोर्द्वारं संवृणोतीति संवरपदव्युत्पत्तिः । उक्तञ्च -- आस्रवो भवहेतु स्यात्....संवरो मोक्षकारणम् इतीयमाहितीसृष्टिः अन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥ इति ॥ अथवा - तेषामेव प्राणातिपातादिरूपास्त्रवाणां निरोधः मनोगुप्त्यादिभिः स्थगनं संवरः ७ अर्जितस्य कर्मणः तपः संयमप्रभृतिर्निर्जरणं क्षपणं निर्जरा, अथवा - उपार्जितकर्मणां विपाकात् तपसा वा शाटनं निर्जरा । एवञ्च – पूर्वोपार्जितकर्मणां तपो ध्यानादिभिः क्षपणं देशतः - आत्मनः करणं निर्जरेति भावः ८ सकाशात् - पृथ कहा जाएगा । पुण्य शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- पुनाति अर्थात् जो आत्मा को पवित्र करता है, वह पुण्य है । अशुभ कर्म पाप है । प्राणातिपात आदि अठारह उसके भेद हैं। इसका स्पष्टीकरण भी आगे किया जाएगा। जो आत्मा के दुर्गति में पतन का कारण हो, वह पाप है, यह पाप का व्युत्पत्तिजनित अर्थ हैं । जिसके द्वारा कर्म आता है वह आस्व है । अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के उपार्जन का हेतु आस्रव कहलाता है जिससे जीवका संसार में परिभ्रमण होता है । आस्रव का रुक जाना संवर है । आशय यह है कि आत्मा में प्रविष्ट होते हुए कर्म जिसके द्वारा रुक जाते हैं, उस तीन गुप्ति और पाँच समिति आदि परिणाम को संवर कहा गया है । व्युत्पत्ति के अनुसार संवर शब्द का अर्थ है - जो आस्रव रूप स्रोत को संवृत करदे अर्थात् बन्द कर दे, वह संवर है । कहा भी है आस्रव भवभ्रमण का कारण है और संवर मोक्ष का कारण है । इसी में सम्पूर्ण तत्त्व की समाप्ति हो जाती है । शेष कथन तो इसी का विस्तार है । आस्रवों का मनोगुप्ति आदि के द्वारा निरोध हो अथवा प्राणातिपात आदि जाना संवर है । पूर्वोपार्जित कर्म का तप एवं संयम आदि कारणों से जीर्ण हो जाना - क्षय हो जाना निर्जरा है या उपार्जित कर्मों का विपाक अथवा तप आदि के द्वारा नष्ट हो जाना : निर्जरा है तात्पर्य यह है कि तपस्या ध्यान आदि कारणों से पहले बँधे हुए पृथक हो जाना निर्जरा है । कर्मों का आंशिक रूप
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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