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________________ दीपिकामियुक्तिश्च अ. १ सू०२९ जीवानां शरीरधारणं तल्लक्षणनिरूपणं च १९१ शरीरयोग्यवर्गणा प्रदर्शनार्थमुपात्तम् । एवं तावत् प्रतिविशिष्टपुद्गलद्रव्यनिर्मापितानि औदारिकादीनि शरीराणि अवसेयानि, तेषु पुनरौदारिकादिषु स्थूलाल्पप्रदेशबहुस्वामित्वात् प्रथमौदारिकस्य ग्रहणं कृतम् । तदनन्तरम्-पूर्वस्वामिसाधाद् वैक्रियग्रहणम् , तदनन्तरम्-लब्धिसामर्थ्याद् आहारकग्रहणम् । ततः सूक्ष्माऽसंख्येयस्कन्धकत्वात् तैजसग्रहणम् ततश्च-सर्वकरणाश्रयसूक्ष्मानन्तप्रदेशत्वात् कार्मणग्रहणं कृतमित्यवसेयम् ॥२९|| वैक्रिय, आहारक तैजस, भाषा, आणा पाणु मन और कार्मण में से प्रत्येक जाति की वर्गणाएँ तीन-तीन प्रकार की कही हैं-अयोग्य, योग्य और अयोग्य । तात्पर्य यह है कि औदारिक आदि शरीरों के तथा भाषा आदि के निर्माण के लिए उचित परिमाणवाली वर्गणाएँ ही योग्य होतो हैं । इन उचित परिमाणवाली वर्गणाओं से कम परिमाणवाली जो वर्गणाएँ हैं, वे अयोग्य होती हैं और अधिक परिमाणवाली हों तो भी अयोग्य होती हैं। कम परिमाणवाली वर्गणाओं में पुद्गलद्रव्यों की कमी होने से उन्हें अयोग्य कहा गया है और अधिक परिमाण वाली वर्गणाओं में उचित से अधिक पुद्गल होने से अयोग्य कहा गया है। पहले की वर्गणाएँ अल्पद्रव्य वाली होने के कारण अयोऽय हैं जब कि अन्त की वर्गणाएँ बहुत द्रव्य वाली होने से अयोग्य है । बीच की वर्गणाएँ उचित परिमाणवाली होने से योग्य कही गई हैं, अर्थात् उन योग्य वर्गणाओं से ही औदारिकशरीर आदि की निष्पत्ति होती है । यहाँ पर वात ध्यान में रखना चाहिए कि प्रचुरतम द्रव्य वाली औदारिक वर्गणा में, जो औदारिकशरीर के अयोग्य होती है, एक पुद्गल मिला दिया जाय तो वह वैक्रिय शरीर के अयोग्य प्राथमिक वैक्रियवर्गणा के समान हो जाती है । इसी प्रकार आहारक आदि सभी आगे की वर्गणाओं के विषय में समझ लेना चाहिए । यद्यपि यहाँ भाषावर्गणा आणा पाणु वर्गणा और मनोवर्गणा का उल्लेख करने का कोई प्रकरण नहीं है, तथापि कार्मणशरीर के योग्य वर्गणाओं को दिखलाने के उद्देश्य से उनका भी उल्लेख किया गया है । इस प्रकार ये औदारिक आदि शरीर अलग-अलग औदारिक वर्गणा आदि से बने हुए हैं । पाँच शरीरों में औदारिक शरीर का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। इसका कारण यह है कि वह सब से अधिक स्थूल है, अल्पप्रदेशी है और उसके स्वामि सब से अधिक हैं। तत्पश्चात् वैक्रिय शरीर के निर्देश करने का कारण पूर्वस्वामी का साधर्म्य है अर्थात् जिसे पहले औदारिक शरीर प्राप्त हो वही वैक्रिय शरीर को प्राप्त करता है। जैसे वैक्रियशरीर लब्धि से भी होता है, उसी प्रकार आहारक शरीर भी लब्धि से प्राप्त होता है । इस समानता के कारण वैक्रियशरीर के पश्चात् आहारक का ग्रहण किया है । आहारक की अपेक्षा भी अधिक सूक्ष्म होने से उसके बाद तैजस का और तैजस अधिक सूक्ष्म होने के कारण उसके बाद १६
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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