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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ २० २९ जीवानां शरीरधारणं तल्लक्षणनिरूपणं च ११९ तत्र-उदारेण बहदसारेण द्रव्येण निर्वत्तं शरीरमौदारिकं व्यपदिश्यते । एवम्-विक्रियया विकुर्वणाशक्त्या निवृत्तं-निष्पादितं शरीरं वैक्रियमुच्यते, विक्रिया-विकारो बहुरूपता एकस्याऽनेककरणम् तया निवृत्तमनेका ताश्रयं नानागुणर्द्धिसम्प्रयुक्तपुद्गलवर्णसमारब्धं वैक्रियं भवतीति भावः । एवम्-आहारकम् शुभतरशुक्लविशुद्धद्रव्यवर्गणाप्रारब्धं प्रतिविशिष्टप्रयोजनायाऽऽहियते उपादीयतेऽन्तर्मुहूर्तस्थित्या आहारकं शरीरं व्यपदिश्यते ॥ एवम्-तेजोऽग्निगुणयुक्तद्रव्यवर्गणाप्रारब्धं तेजोविकारः तेज एव वा तैजसमुष्णगुणं शापाऽनुग्रहसामोद्भावनम् , तदेव यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पद्यते तदा परं जीवं प्रतिदाहाय क्रोधविषजाज्वल्यमानमानसोविसृजति गोशालादिवत् , प्रसन्नतायुक्त : पुनः शीततेजसाऽनुग्रहं करोति । यस्य तु-उत्तरगुण प्रत्यया लब्धि!त्पन्ना भवति, तस्व सततमभ्यवहृताहारमेव पाचयति । यच्च खलु-पाचनशक्तियुक्तम्-, तदपि तैजसमुच्यते ॥ ___ एवम्-कर्मणा निर्वृत्तं-निष्पन्नं शरीरं कार्मणमुच्यते अशेषकर्मराशेराधारभूतं बदरीफलादीनां कुण्डादिवत्, अशेषकर्मजननसमर्थ वा बीजादिवत् इति भावः । इयं च खलु-उत्तरगुणप्रकृतिः शरीरनामकर्मणः पृथगेव कर्माष्टकात् समूहादित्यतः कर्मैव-कार्मणमुच्यते ।। जो शरीर स्थूल और निस्सार पुद्गलद्रव्यों से बना हो वह औदारिक कहलाता है । जो विक्रिया शक्ति से उत्पन्न हुआ हो वह वैक्रिय कहलाता है। विक्रिया, विकार, बहुरूपता या एक का अनेक बनाना, यह सब समानार्थक हैं, जो शरीर विक्रिया से बना हो, अनेकरूप और अद्भुत हो, नाना गुणों से युक्त पुगलवर्गणा से बना हो, वह वैक्रिय कहलाता है। जो शरीर अत्यन्त शुभ, शुभ्र और विशुद्ध द्रव्यवर्गणाओं से उत्पन्न हो और एक विशेष प्रयोजन से ही बनाया जाय, तथा जिसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र हो, वह आहारक शरीर कहलाता है। ___ जो तैजस गुण वाले द्रव्यों से निर्मित हो, तेज का विकार हो या तेज रूप ही हो, वह तैजस शरीर है । यह शरीर उष्णगुण वाला तथा शाप और अनुग्रह के सामर्थ्य वाला भी हो सकता है। - यह शरीर जिसे प्राप्त होता है और यदि वह तेजोलेश्या लब्धिवाला हो तो वह जब क्रोध से प्रज्वलित होता है तब दूसरे जीव को दाह करने के लिए उसे बाहर निकालता है, जैसे गोशालक ने निकाला था। और जब प्रसन्न होता है तब शीत तेज से अनुग्रह भी करता है। जिस जीव को उत्तरगुणप्रत्ययक लब्धि प्राप्त नहीं होती उसका तैजस शरीर खाए आहार को पचाने का काम करता रहता है । इस प्रकार जो शरीर आहार को पचाने की शक्ति वाला हो वह भी तेजस कहा जाता है। इसी प्रकार कर्म के द्वारा निष्पन्न शरीर कार्मण कहलाता है । यह शरीर समस्त कर्मराशि का उसी प्रकार आधारभूत है जैसे बोर आदि का अधार कुंड आदि होता है । अथवा यह शरीर
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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