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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ सू. २८ जीवस्योत्पादनिरूपणम् १११ समुत् पत्तव्यम्-नान्यत्रेत्येतत्सर्वं तावद् अचिन्त्यसामर्थ्यशालीनि कर्मण्येव-आत्मपरिणत्यपेक्षाणि प्रसाधयन्ति न पुनरेपान्तरालवर्तितां वेलां प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति । ___ तस्मात् कर्मानुभावात् उत्पत्तिक्षेत्रमनुप्राप्तः सन् औदारिक-वैक्रियशरीरनिष्पत्तये तच्छरीरप्रायोग्यानां पुद्गलानामुपादानं करोति, अथ केन हेतुना ते पुद्गलास्तद्योग्याः संलगन्ते- इतिचेत् ? उच्यते सकषायत्वाद् जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानुपादत्ते । ते पुद्गलाः स्नेहाभ्यक्तशरीरवस्त्रादौ रेणुलगनवत् सकषायत्वात् लगन्ति । काय-वाङ्मनःप्राणाः पुद्गलानामुपकारः औदारिकादिपञ्चविधशरीराणि पुद्गलानामुपकार इतिरीत्या ते पुद्गलास्तथाश्लेषात् तद्रूपतया परिणतिमासादयन्ति तस्यामवस्थायामिति भावः ।। एवं नाम प्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् इति रीत्या सूक्ष्माः एकक्षेत्रावगाढतया स्थिताः सर्वात्मप्रदेशेषु अनन्तानन्तप्रदेशा भवन्ति । एवम् बन्धननामकर्मोदयहेतुतः कर्मपुद्गलग्रहणमिति का विच्छेद होता है अर्थात् वर्तमान भव का क्षय होता है तब वह जीव जिस क्षेत्र में पुनर्जन्म ग्रहण करने वाला है, उस क्षेत्र में वह अपने पूर्वार्जित कर्म के सामर्थ्य से ही जाता है, इश्वर आदि की प्रेरणा से नहीं जाता । वह ऋजु या वक्र उत्पत्तिस्थान में जाए, वाएँ मार्ग से जाए, अमुक समय में जाए, अमुक योनि में उत्पन्न हो, अन्यत्र नहीं; इन सब बातों के नियामक अचिन्त्य सामर्थ्यशाली नामकर्म आदि ही हैं । मृत्यु के पश्चात् समय की प्रतीक्षा करता हुआ कहीं ठहरा नहीं रहता। इस प्रकार कर्म के प्रभाव से अपने उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँच कर जीव अपने योग्य औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर की निष्पत्ति के लिए शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । प्रश्न- शरीर के योग्य पुद्गल किस कारण से सम्बन्ध हो जाते हैं ? उत्तर-कपाययुक्त होने से जीव कर्म के योग्य पुदगलों को ग्रहण करता है । वे पुद्गल उसी प्रकार चिपक जाते हैं जैसे चिकनाई लगे शरीर या वस्त्र पर रेत चिपक जाती है । काय, वचन मन और प्राण पुद्गलों का उपकार हैं, इस कथन के अनुसार पाँचों शरीर पुद्गलों का उपकार हैं अर्थात् पुद्गलों के निमित्त से उत्पन्न करते हैं। अतएव ग्रहण किये हुए वे पुद्गल विशेष प्रकार से श्लेष को प्राप्त होकर शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं। वे पुद्गल सब ओर से, योग की विशेषता के अनुसार गृहीत, सूक्ष्म, एक ही क्षेत्र में अवगाढ अर्थात् जिन आकाशप्रदेशों में जीव रहा हुआ हो उन्हीं आकाशप्रदेशों में स्थित तथा अनन्तानन्त प्रदेश वाले होते हैं । इस प्रकार बन्धननामकर्म के उदय से कर्मपुद्गलों का ग्रहण होना पहली उत्पत्ति है, उपकार भेद की विवक्षा के द्वारा मध्यम उत्पत्ति है और प्रदेशबन्ध के
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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