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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ सू. २८ जीवस्योत्पादनिरूपणम् १०९ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व विग्रहयाऽविग्रहया वा गत्या वक्रया-ऋज्वा वा गत्या गतः सन् उत्पत्तिदेशं प्राप्तः सन् प्रागुपात्तौदारिकवैक्रियशरीरपरिक्षये सति जीवः पुनरुत्पद्यत इत्युक्तम् । सम्प्रति केन प्रकारेण स पुनरुत्पद्यते इति प्रतिपादयितुमाह "तिविहं जम्मं गन्भसमुच्छणो-चवाया-” इति त्रिविधं जन्म प्रज्ञप्तम् , गर्भः--सम्मूर्च्छनम्-उपपातश्चेति । तत्र-स्त्रीयोनौ एकत्रीभूतशुक्रशोणितयोर्यद् ग्रहणं करोति जीवो मातृभक्षिताहाररसपरिपोषापेक्षं तद्गर्भजन्म व्यपदिश्यते, गर्भ एवजन्म प्रतिपत्तव्यम् । इदंच-लक्षणं वक्ष्यमाणसम्मूर्च्छनजन्मलक्षणतो भिन्नमवसेयम् । आगन्तुकस्य शुक्रशोणितग्रहणात् । स्त्रीयोनेः शुक्रशोणितमात्रस्वरूपत्वाभावात् जन्म च शरीरद्वयसम्बन्धितयाऽऽत्मनः परिणतिलक्षणं बोध्यम् । समूर्छामात्रं-सम्मूर्छनम् यस्मिन् स्थाने स जीवो जनिष्यते तत्रत्य पुद्गलानुपमृद्य-संगृह्य शरीरीकुर्वन् शुक्रशोणितं विनैव सम्मूर्छन जन्म प्राप्नोति । तदेव तथाविधं सम्मूर्च्छनं जन्म उच्यते । एवञ्च-सम्मूर्छनजन्म उत्पत्तिस्थानवर्त्तिपुद्गलपुञ्जमनुपमृद्याऽगृहीत्वा न प्रादुर्भवति सुराजन्मवत् किण्वाद्यपमर्दनात् यथा-पिष्टकिण्वोदकादीना मुपमर्दनेन सुराया उत्पत्तिर्भवति । तथा बाह्यपुद्गलानामाध्यात्मिकपुद्गलानां चोपमर्दनाद् यज्जन्म भवति तत्सम्मूर्च्छनजन्म व्यपदिश्यते ।। है, उस जीव का जन्म गर्भ जन्म कहलाता है । उसका गर्भ ही जन्म समझना चाहिए । आगे कहे जाने वाले संमूर्च्छन जन्म के लक्षण से यह लक्षण भिन्न है । इस जन्म में : आगन्तुक (अन्य जगह से आए) शुक्र और शोणित को ग्रहण किया जाता है, स्त्री की योनि शुक्र-शोणित स्वरूप वाली नहीं होती। जन्म दो शरीरों से संबंधित होने के कारण आत्मा की परिणति विशेष है। संमूर्छा को संमूर्छन कहते हैं । जिस स्थान में जीव उत्पन्न होने वाला है, वहाँ के एकत्रित पुद्गलों को ग्रहण करके, शुक्र-शोणित के विना ही अपने शरीर का निर्माण करता है । वह संमूर्छन जन्म कहलाता है । इस प्रकार संमूर्च्छन जन्म अपने उत्पत्तिस्थान में रहे हुए पुद्गलों के समूह को ग्रहण किये विना नहीं होता है । जैसे आटा , किण्व दारु का बीज जल आदि के सम्मिश्रण से सुरा की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार बाह्य और भीतरी पुद्गलों के ग्रहण से जो जन्म होता है, वह संमूर्च्छन जन्म कहलाता है । . बाह्य पुद्गलों के ग्रहण से काष्ट आदि में घुन आदि कीड़ों का जन्म होता है, यह प्रसिद्ध ही है । काष्ट की त्वचा (छाल) एवं पके फल आदि में कृमि आदि जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे उन्हीं काष्टत्वचा एवं फल आदि में रहे हुए पुद्गलों को अपना शरीर बना लेते हैं । इस प्रकार जीवित गाय, भैंस, मनुष्य आदि के शरीरों में उत्पन्न होने वाले कीडे आदि जीव उन्हीं गाय भैंस आदि के शरीर के अवयवों को ग्रहण करके अपने शरीर रूप में परिणत कर लेते हैं । इन कमि आदि का संमूर्धन जन्म भीतरी पुद्गलों के ग्रहण से होता है, यह भी प्रसिद्ध है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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