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________________ दीपिकानियुक्तश्च अ. १ सू० २५ भवान्तरमार्गे बर्तमानजीवानां योगनिरूपणम् ९९ औदारिक-वैक्रियकाययोगौ निवृत्तौ भवतः । नारकसुराः-वैक्रिययोगभाजः । तिर्यग्मनुष्या औदारिक वैक्रिययोगिनः । आहारकयोगं प्रमत्तोऽनगारो निष्पादयति, पश्चादप्रमत्तस्याऽऽहारकयोगो भवति, एते-एव नारकादयोऽपर्याप्तावस्थावर्त्तिनो मिश्रयोगभाजो भवन्ति । यो जीवः आगामिनि भवे औदारिकशरीरं लप्स्यते स आहरग्रहणानन्तमेव, मौदारिकमिश्रशरोरः कथ्यते, पुनर्यो जीवो वैक्रियशरीरं धरिष्यति तस्य वैक्रियमिश्रशरीरं भवति । केवलिसमुद्घात काले च तृतीय-चतुर्थ-पञ्चसमयेषु कार्मण एव । ___ द्वितीय-षष्ठ-सप्तमेषु-औदारिककार्मणमस्ति प्रथमाष्टमयोरौदारिक एव एवमन्यत्र तु यथोक्तः कायादियोगः समायोजितो बोध्यः । अथ कार्मणयोगा विग्रहगतिश्चेत् एकविग्रहायामपि गतौ कार्मण एव योगः कथं न भवति-! तस्या अपि विग्रहगतित्वात् । गति में औदारिक तथा वैक्रिय काययोगों की निवृत्ति हो जाती है। नारक और देक वैक्रिययोग वाले होते हैं । तिर्यच और मनुष्य औदारिक तथा वैक्रिययोग वाले होते हैं । आहारयोग का प्रमत्त अनगार ही प्रारंभ करता है , फिर अप्रमत्त के भी आहारकयोग होता है। यही नारक आदि जीव जब अपर्याप्त अवस्था में होते हैं, तब वे मिश्रयोग वाले होते हैं । ___ जीव आगामी भव में औदारिक शरीर धारण करेगा उसके आहार ग्रहण ही औदारिक मिश्र होता है । और जो जीव वैक्रिय शरीर धारण करते हैं उसके वैक्रिय मिश्र होता है। केवलिसमुद्घात के समय, तीसरे चौथे और पाँचवें समयों में कार्मण काययोग ही होता है, दूसरे, छठे और सातवें समयों में औदारिक कार्मर्णयोग औदारिकमिश्र होता है तथा प्रथम और आठवें समय में औदारिक योग ही होता है। अन्य अवस्थाओं में पूर्वोक्त काययोग आदि की योजना कर लेनी चाहिए । शंका यदि विग्रहगति में कार्मण काययोग होता है तो एकविग्रह वाली गति में भी कार्मण काययोग ही क्यों नहीं होता ? वह भी तो विग्रहगति ही है। समाधान --- विग्रहगति में कार्मण काययोग की व्याप्ति तिल और तेल के समान विवक्षित नहीं है, किन्तु विषयमात्र की विवक्षा की गई है। जैसे आकाश में पक्षी और जल में मत्स्य की विवक्षा की जाती है उसी प्रकार विग्रहगति में कार्मण काययोग कहा जाता है । अन्यथा दो या तीन विग्रह वाली गति में आदि और अन्त के समयों में भी कार्मणयोग की प्राप्ति होती। किन्तु दो विग्रह वाली गति में मध्यम समय में एवं तीन विग्रह वाली गति में दो मध्य के समयों में ही कार्मण काययोग माना जाता है।
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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