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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० १ स. २४ जीवस्य विग्रहाविग्रहगतेनिरूपणम् ९५ तथाच -ऋज्वादयश्चतुःसमयपर्यन्ता एव चतुर्विधा गतयो भवन्ति, नतु--पञ्चसमयादिका गतिः संभवति । आसां च-चतसृणां गतीनां मध्ये नारकादीनामविग्रहैकद्विविग्रहा एव गतयो भवन्ति, न तु–त्रिविग्रहाः एकेन्द्रियाणां त्रिविग्रहाश्चेतराश्च गतयो भवन्ति । " तथाचोक्तं स्थानाङ्गे तृतीयस्थाने चतुर्थोद्देशे २२५-सूत्रे-“ नेरइयाणं उक्कोसेणं तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जति एगिंदियवज्जं जाव-वेमणियाणं इति" । नैरयिकाः खलु उत्कृष्टेन त्रिसामयिकेन विग्रहेण उपपद्यन्ते एकेन्द्रियवर्ज यावद् वैमानिकाः । एवं व्याख्याप्रज्ञप्ती भगवतीसूत्रे ३४--शतके १ उद्देशे (१-सूत्रे– “कइसमइएणं विग्गहेणं उववज्जंति-? गोयमा ! एगसमइएणं वा-दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जति इति । कतिसामयिकेन विग्रहेण उपपद्यन्ते- हे गौतम-! एकसामयिकेन वा- द्विसामयिकेन वात्रिसामयिकेन वा-चतुःसामयिकेन वा विहेण उपपद्यन्ते । अथ कथं तावदेकसमयैवाऽविग्रहा गतिर्भवति, न द्विसमया, न वा-त्रिसमया भवति कालावसरे तावदसौ कालं कृत्वा कदाचित् समयद्वयं यावत् कालतः पूर्णमेव समयत्रयमपि अवक्रं गमनं कुर्यादिति चेदुच्यते-- ? एकसमयं यावत् प्रतिघाताभावात् शास्त्रसंमतत्वात् विग्रहनिमित्ताभावाच्च ऋज्वागत्या यत् स्थान प्राप्तं स तदविश्राम्यन् अपान्तराले स्वभावादेव केनचित् प्रतिघातहेतुना प्रतिहतःसन् तदवश्यं प्राप्नोति किं तत्र-द्विसमयादिसमयपरिकल्पनया, अतःप्रतिघाताभावात् तस्यापान्तराले एकसमयैवाऽविग्रहागतिर्भवति सिद्धिगतिः । ऋजुताया अवच्छेदस्तावद् अवग्रहरूपोनहीं हो सकती जो चार से अधिक--पांच आदि समयों की हो । इन चार गतियों में से नारक आदिकों की अविग्रहा (सरल) और एक या दो विग्रह वाली गति ही होती है, तीन विग्रह वाली नहीं । एकेन्द्रिय जीवों की तीन विग्रह वाली तथा अन्य गतियाँ भी होती हैं । स्थानांगसूत्र के तीसरे स्थान के चौथे उद्देशक के सूत्र २२५ में कहा है-नारक जीव उत्कृष्ट तीन समय वाले विग्रह से उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियों को छोड़ कर वैमानिकों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। इसी प्रकार भगवतीसूत्र के ३४ वें शतक, प्रथम उद्देशक के सूत्र १ में कहा है प्रश्न---नारकजीव कितने समय के विग्रह से उत्पन्न होते हैं ? उत्तर-गौतम ! एक समय, दो समय, तीन समय अथवा चार समय के विग्रह से उत्पन्न होते हैं। प्रश्न हो सकता है कि अविग्रहगति एक समय की ही क्यों होती है ? दो या तीन समय की क्यों नहीं होती ? काल के अवसर पर काल करके कोई जीव दो या तीन समय तक अवक्र (सौधा) गमन क्यों नहीं करता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ऋजुगति में प्रतिघात नहीं है और विग्रह का कोई कारण नहीं है । इसके अतिरिक्त शास्त्रकी यही मान्यता है। जो जीव ऋजुगति से अपने उपपातक्षेत्र जाता है, वह बीच में कहीं भी रुके बिना एक ही समय में उसे प्राप्त कर लेता है। वहाँ दो या दो से अधिक समय लगने का कोई कारण नहीं है । अतएव उसकी वह गति
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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