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________________ वीपिकानियुक्तिश्च अ०१ नवतत्वनिरूपणम् ३ ५ आस्रवः-खलु शुभाऽशुभकर्माऽऽगमनमार्गः प्राणातिपातादिः । भवागमनहेतुभूतः क्रियाविशेषः आलवत्यनेन कम-इत्यास्रवः । ६ । संवरः खलु तथाविधास्रवनिरोधरूपः येनाऽऽत्मनि प्रविशत्कर्म संत्रियते- निरुध्यते स संवरः त्रिगुप्ति पञ्च समित्यादिः ।७ आस्रवं स्रोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः । उक्तञ्च-आस्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् इति । निर्जरा च-उपार्जितकर्मणः तपः संयमादिना देशत्ये निर्जरणं-क्षपणम् , यद्वा-समुपार्जितकर्मणां विपाकात् तपसा वा देशतः शाटनं निर्जरा । तथा च पूर्वोपार्जितकर्मणां तपोध्यानादिभिर्निर्जरणं देशतः आत्मनः सकाशात् पृथक्करणं निर्जरा । ८ मोक्षस्तु-आत्यन्तिककृत्स्नकर्मक्षयरूपो बोध्यः । तथाचोक्तम्उत्तराध्ययनस्य २८ अष्टाविंशतितमे अध्ययने जीवाऽजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा । संवरो णिज्जरामोक्खो संतेए तहिया नव ॥१॥ नियुक्तिः-अथाहं भवतितीर्षणां जिनतत्त्वजिज्ञासूनां जैनागमतत्त्वस्वाध्यायार्थम् आगमसारान् स्वबुद्धया यथाशक्ति संगृह्य तत्वार्थ सूत्राणि नवाध्यायेषु निर्मितवान् तत्र-कचित् शब्दश आगम (५) आत्मा के दुर्गति में पतन का जो कारण हो वह अशुभ कर्म पाप कहलाता है। (६) शुभ और अशुभ कर्मों के आगमन का मार्ग, भवभ्रमण का कारण प्राणातिपात आदि क्रिया रूप आस्रव है । अर्थात् जिससे कर्म आते हैं, वह आस्रव है। ... (७) आस्रव का रुक जाना संवर तत्त्व है । तात्पर्य यह है कि आत्मा में प्रविष्ट होते हुए कर्म जिस आत्मपरिणाम के द्वारा रुक जाते हैं, उन तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि को संवर कहते हैं । जो आस्रव के स्रोत द्वार को रोक देता है . संवृत कर देता है, वह संवर है । कहा भी है - आस्रव संसार का कारण है और संवर मोक्ष का कारण है ! ... (८) पहले जो कर्मबंध कर चुके हैं उनका तप-संयम आदि से निर्जीर्ण होना--- झड़ जाना, खिर जाना या आंशिक रूप से क्षय हो जाना निर्जरा है । अथवा पूर्वोपार्जित कर्म यथाकाल अपना फल देकर या तपस्या आदि द्वारा क्षीण हो जाएँ वह निर्जरा तत्त्व है। अभिप्राय यह है कि पहले बँधे हुए कर्मों का तप, ध्यान आदि के द्वारा एकदेश से क्षीण हो जाना अर्थात् आत्मप्रदेशों से पृथक् हो जाना निर्जरा है । (९) सदा के लिए समस्त कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है । उत्तराध्ययन के २८ वें अध्ययन में कहा है जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये नौ तत्त्व हैं ॥१॥ तत्वार्थ नियुक्ति-बत्तीस आगमों की टीका रचने, के पश्चात् मैंने संसार से तिरने की इच्छा रखने वाले और जिनप्रतिपादित तत्त्वों को जानने के अभिलाषी जनों के स्वाध्याय के
SR No.020813
Book TitleTattvartha Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1020
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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