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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (६४) (बूटेरायजी) महाराजजीके परिवारमें अधिकार नहीं होनेसें देश गुजरात, शहेर अहमदाबादके तरफ विहार करनेका इरादा करके, शहर अंबालासे विहार करके दिल्लीमें पधारे. वहां तिनको ढुंढकोंका छपवाया 'सम्यक्त्वसार' नामा पुस्तक, भावनगरकी "श्री जैनधर्म प्रसारक सभा” तरफसे मिला. तिसका उत्तर, सभाकी प्रेरणासें श्रीआनंदविजयजीने लिखना सुरु किया. शहर दिल्लीसें " हस्तिनापुर” की यात्रा करके " जयपुर " " अजमेर“नागौर " आदि शहरों में विचरते हुये, “ बीकानेर पधारे. और संवत् १९४० का चौमासा, वहां किया. और चौमासेमें "वीशस्थानकपूजा ” बनाई. इस चौमासेमें श्रीआनंदविजयजीके बडे शिष्य, " श्रीलक्ष्मीविजयजी ( विश्नचंदजी ): बहुत बिमार होगये. वीकानेरसे शनैः शनैः विहार करके श्री आनंदविजयजी, श्रीलक्ष्मीविजयजी आदि शिष्यों सहित, शहर पालीमें पधारे. यहां श्रीलक्ष्मीविजयजी स्वर्गवास हुये ! अफसोस ! ! महाराजजीकी बडी बांह टूट गई ! ऐसे लायक विनयवान् पंडित शिष्यके स्वर्गवास होनेसें सब श्री संघको बडा खेद हुआ. परंतु श्रीआनंदविजयजीको देखके होंसला किया कि, फिकर नहीं. एक न एक दिन तो मरनाही था. अस्तु ! अब परमेश्वरसें यही प्रार्थना है कि, हमारे शिरपर, श्रीआनंदविजयजी महाराजजी के छत्र छाया, चिरकाल बनी रहे ! श्रीआनंदविजयजी पाली शहरसें विहार करके पंचतीर्थी, आबुजी आदिकी यात्रा करते हुए शहर अहमदावाद पधारे. और बडौदाके राज्यमें गाम डभोईके रहनेवाले मोतीचंदको दीक्षा देके "श्री हेमविजयजी" नाम रखा. तथा “ उद्योतविजयजी आदिको, श्री गणिजी महाराजजीके पास बडी दीक्षा दिलवाई. और संवत् १९४१ का चौमासा, वहांही किया. चौमासेमें “ आवश्यकसूत्र" बाईस हजार, जो प्रथम संवत् १९३२ के चौमासेमें वांचना प्रारंभ किया था, अधूरा रहनेसें, अब भी व्याख्यान उसहीका करते रहें; और भावनाधिकारमें “ श्रीधर्मरत्न प्रकरण 7 सटीक वांचते रहे. जिसको सुननेके वास्ते अनुमान (७०००) श्रावक श्राविका आतेथे. इस चौमासेमें श्री जैनधर्मका बडाही उद्योत हुआ, सैंकडोही अट्ठाई महोत्सव हुवे, पूजा प्रभावना भी बहुत हुई, अनेक प्रकारकी तपस्या भी हुई, स्वधर्मीवात्सल्य भी बहुत हुये. एक दिन श्रीसंघने सलाह करके, श्रीमहाराजजी साहिब श्रीआनंदविजयजीसें प्रार्थना करिकि, “ आपने देशपंजाबमें जो नये श्रावक बनाये हैं, तिनको हम मदद देनी चाहाते हैं," तब श्री महाराजजीने कहा कि, " तुमारी मरजी. तुमारा धर्मही है के, अपने स्वधर्मियोंको मदद देनी." बाद श्रीसंघने बहुत जिन प्रतिमा धातुकी, और पाषाणकी, देशपंजाबके शहर " अंबाला, " " लुधीआना, "" "कोटला, " “जिरा, "" " जालंधर, " "नीकोदर, " "हुशीआरपुर, " "गुरुका झंडियाला, 7 “पट्टी, " " अमृतसर, ", " नारोवाल," " सन. खतरा, १ "गुजरांवाला, " वगैरह बहुत शहरोंमें श्रावकोंके पूजने वास्ते भेजी. तथा इस चौमासेमें, श्रीआनंदविजयजीने, सम्यक्त्वसार पुस्तकका उत्तर लिखके पूर्ण किया. जो “ सम्यक्त्वशल्योहार" के नामसें भावनगरकी सभाके तरफसें छप गया है. जिसमें भावनगरकी सभाने भी, अपने तरफसे कितनाक हिस्सा बढाया है. इस ग्रंथके वांचनेसें ढुंढकमत, और सनातन जैन धर्ममें, कितना फरक है, मालुम होजाताहै. परंतु कितनेक शब्द सभाके तरफसे कठिन पडनेसें बहुत ढुंढक लोक वांचते नहीं है, तथा गुजरात देशकी बोलीमें होनेसें, कितनकको ठीक ठीक For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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