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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ততই तत्त्वनिर्णयप्रासाद पूर्वापरपर्याय एक अनुगत उन उन पर्यायोंको प्राप्त होवे, इस व्युत्पत्तिसें त्रिकालानुयायी, जो वस्त्वंश है, सो उर्द्धतासामान्य कहा जाता है. उदाहरण जैसें कटककंकनमें सोही सोना है. अथवा सोही यह जिनदत्त है. तहां तिर्यक्सामान्य तो, प्रतिव्यक्ति में सादृश्यपरिणतिलक्षण व्यंजन पर्यायही है. क्योंकि, व्यंजनपर्याय, स्थूल है, कालांतर स्थायी है, शब्दोंके संकेत के विषय है, ऐसें प्रावचनिकोंमें अर्थात् जैनाचाय में प्रसिद्ध होनेसें. और उर्द्धतासामान्य तो, द्रव्यहीको विवक्षासें कहता है. और विशेष भी, सामान्यसें विसदृश विवर्त्तलक्षण व्यक्तिरूप पर्यायोंके अंतर्भूतही कहे हैं. इसवास्ते द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयोंसें, अधिक नयोंका अवकाश नही है. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अथ सात नयकी संख्या कहते है:- द्रव्यार्थिकनयके तीन भेद हैं. नैगम ( १ ) संग्रह ( २ ) व्यवहार ( ३ ). पर्यायार्थिकनयके चार भेद हैं. ऋजुसूत्र ( १ ) शब्द ( २ ) समभिरूढ ( ३ ) एवंभूत ( ४ ) . येह सर्व सात नय हुए. पांच भी नयभेद होते हैं, षट् भेद भी हैं, चार भेद भी हैं; यह कथन प्रवचनसारोद्धारवृत्ति में विस्तारसहित है, सो आगे कहेंगे. यदुक्तमनुयोगतद्वृत्त्यादिषु ॥ गेहिं माणेहिं मिणई इति णेगमस्स य निरुत्ती सेसाणंपि णयाणं लक्खणमिणं सुणह वोच्छं ॥ १ ॥ संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासओ बिंति वच्चइ विणिच्छियत्थं ववहारो सवदवे ॥ २ ॥ पच्चुपन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयवो इच्छइ विससियतरं पच्चुपन्ननओ सुद्दो ॥ ३ ॥ वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थू गए समभिरूढे वंजणअत्थतदुभए एवंभूओ विससेति ॥ ४ ॥ णामि गिहियवे अगिहियवे य इत्थ अत्यंमि जइयवमेव ss जो उवऐसो सो नओ नाम ॥ ५ ॥ इइ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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