SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वास्ते बहुत प्रार्थना करी. परंतु देश पंजाबमें, जो सत्यधर्मका बीज लगायाथा, तिनको प्रफुल्लित करनेका इरादा करके, संघसें जूदे होकर, “मोरबी, ध्रांगध्रा, झींझुवाडा, 7 होकर "शंखेश्वर' गाममें, श्री “ शंखेश्वर पार्श्वनाथ ” की मूर्ति, जो शंखपति, “ कृष्णवासुदेव' को "धरणेंद्र" की आराधनासें मिलीथी, और जिसके स्नात्रजलके छिटकनेसें, " जरासिंध" नामा प्रतिवासुदेवकी जरा विद्या, कृष्ण वासुदेवके लश्करसे दूर हुई थी. ऐसे प्रभाववाली श्री पार्श्वनाथकी मूर्तिके दर्शन करनेसें सब साधु, बहोतही आनंदित हुए. यहांसें विहार करके श्री "आनंदविजय जी, " " पाटण शहरमें पधारे. तहां प्राचीन जैन पुस्तकोंके भंडार देखे, तिनमेसें कितनेक ग्रंथोंकी नकलें भी करवाई. पाटणसें विहार करके "तारंगाजी " तीर्थपर, "राजाकुमारपाल" के उद्धार किये बडे भारी मंदिरमें विराजमान, श्री “ अजितनाथ स्वामी" की यात्रा करी और विहार करके "पालणपुर, आबु, शिरोही, पंचतीर्थी, १ वगैरहकी यात्रा करते हुए शहर "पाली में आये. तहां शहर " जोधपुर के श्रावकोंका पत्र, श्रीआत्मारामजीको मिला. जिसमें लिखाथा कि, “यहां (जोधपुरमें) इसवखत (३५) ढुंढक साधु, आपके साथ चरचा करनेके वास्ते एकत्र हुए हैं. जिसमें दिवान् “विजयसिंह मेहता, पंडित मंडल सहित, मध्यस्थ नियमित किये गये हैं. इसवास्ते आप कृपा करके जलदी शहर जोधपुरमें पधारके, हम सेवकोंकी अभिलाषा पूर्ण करें” इसवास्ते श्री आनंदविजयजीने, थोडेही दिन पाली में रहकर, शहर जोधपुरके तरफ विहार किया; और क्रम करके शहर जोधपुरमें पहुंचे. इनके यहां पहुंचनेसेंही अगले रोज (३४) ढुंढक साधु तो, सभा होनेके एकदिन पहिलेही, विना चरचा किये, चूपचाप इस तरांह चले गये, जैसें सूर्योदयसें अंधेरा दूर होजाता है. परंतु " हर्षचंद" नामा एक ढुंढक साधु, रहगयाथा. सो श्रीआनंदविजयजीसें बातचित करके, शुद्द श्रद्दान में आगया. श्रीविश्नचंदजी गुरु नाम धराया, और " हर्षविजयजी" निज नाम पाया. इस वखत ढुंढकोंके अनिष्टाचरणसें राज्यके भयसें कितनेही औसवाल, जैनमतको छोडके वैष्णवादि मतका आश्रय लेने लग गयेथे. इसवास्ते इन लोकोंपर कृपादृष्टि करके, श्री आनंदविजयजी महाराजने संवत् १९३४ का चौमासा, शहर जोधपुरमेंही किया. जिसमें प्रथम पचास घर अनुमान ठीक ठीक श्रद्धानवाले रहेथे, सो वधके अनुमान पांचसौ होगये. क्यों न होवे? सूर्यके उदय होनेसें अंधकार दूर होताही है. यदि ऐसे महात्माके आनेसें भी हृदयगत अज्ञानांधकार दूर न होता तो, कब होता? चौमासे बाद जोधपुरसें विहार करके, दुकालके सबबसें रस्तेमें भूख प्यासको सहन करते हुए, श्रीआनंदविजयजी, " जयपूर, दिल्ली होकर देश पंजाबमें शहर अंबालामें आये. इसबखत सूर्योदयसें घूक जानवरको जैसें चिंता होती है, तैसें पंजाबी ढुंढकोको हुई. परंतु सूर्यविकाशी कमलकी तरांह अन्य श्रावकोंके मुखारविंद खिड गये. ___ अंवालासे विहार करके शहर लुधीआनामें आये; वहां "श्री उत्तमऋषि ” लौंकामतके यति. (पूज) अंबालावालेने सब डेरा छोडके, श्रीआनंदविजयजीके पास पांच महाव्रत अंगीकार किये. और गुरुजीका दिया, श्री “ उद्योतविजयजी" नाम धारण किया. कितनेक दिनों बाद शहर लुधीआनामेंही. जील्ला फिरोजपुर गाम मुदकीका रहनवाला दुनीचंद ओसवाल, हुशीआरपुरका रहनेवाला, उत्तमचंद ओसवाल, शहेर पाली देश मार वाडका रहनेवाला हर्षचंद ओसवाल, जेजोका रहनेवाला मोतीचंद ओसवाल, इन चार जैनों For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy