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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्त्वनिर्णयप्रासादएकमें जो अनेक स्वभाव उपलंभ होवे, सो अनेकस्वभाव. अर्थात् मृदादिद्रव्यका स्थास कोस कुशूलादिक अनेक द्रव्य प्रवाह है, तिसमें अनेकस्वभाव कहीये; पर्यायपणे आदिष्ट द्रव्य करिये, तब आकाशादिक द्रव्यमें भी, घटाकाशादिक भेदकरके यह स्वभाव दुर्लभ नहीं है. ।६। गुणगुणी, पर्यायपर्यायी, आदिका संज्ञासंख्यालक्षणादिक भेदकरके सातमा भेदस्वभाव जानना.। ७ । संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन गुणगुणीआदिका एक स्वभाव होनेसें, अभेदवृत्तिद्वारा अभेदस्वभाव.। ८। अनेक कार्यकारणशक्तिक जो अवस्थित द्रव्य है, तिसको क्रमिकविशेषता आविर्भावकरके अतिव्यंग्य होना, अर्थात् आगामिकालमें परस्वरूपाकार होना, सो भव्यखभाव. । ९ । तीनों कालमें परद्रव्यमें मिले हुए भी, परस्वरूपाकार न होना, सो अभव्यस्वभाव. ॥ यदुक्तम् ॥ अन्नोन्नं पविसंता देता ओगासमण्णमण्णस्स ॥ मेलंताविय णिच्चं सगसगभावं णविजहंति॥१॥ इति. ॥१०॥ स्वलक्षणीभूत परिणामिक भावप्रधानताकरके परम भावस्वभाव. कहिये; तात्पर्य यह है कि, जिस जिस द्रव्यमें जो जो परिणामिकभाव प्रधान है, सो सो, परमभावस्वभाव है. यथा ज्ञानस्वरूप आत्मा.। ११ । यह सामान्यस्वभावोंका संक्षेपार्थ है. विशेषार्थ देखना होवे तो, बृहत्नयचक्रसें देखलेना. . जिससे चेतनपणाका व्यवहार होवे, सो चेतनस्वभाव.।१। चेतनस्वभावसे उलटा, अचेतनस्वभाव.।२। रूपरसगंधस्पर्शादिक जिससे धारण करिये, सो मूर्तस्वभाव. ।३। मूर्तस्वभावसे उलटा, अमूर्तस्वभावः।४। एकत्वपरिणति अखंडाकारसन्निवेशका जो भाजनपणा, सो एकप्रदेशस्वभाव.। ५। जो भिन्नप्रदेशयोगकरके तथा भिन्नप्रदेशकल्पनाकरके अनेकप्रदेशव्यवहारयोग्यपणा होवे, सो अनेकप्रदेशस्वभाव.।। स्वभावसे अन्यथा जो होवे, सो विभावस्वभाव.।७। जो केवल शुद्ध होवे, अर्थात् उपाधिभावरहित अंतर्भावपरिणमन, सो शुद्धखभाव.।। For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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