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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६८२ तत्त्वनिर्णयप्रासादनही है. और तो हेतु, वादीप्रतिवादी दोनोंको सम्मत होना चाहिये, सोतो, हैही नही. इसवास्ते व्यासजी और शंकरस्वामीका कहना, असमंजस है. __ और जो शंकरस्वामी लिखते हैं कि, शरीरोंको अनवस्थितपरिमाणवाले इत्यादि. तिसका उत्तरः-जीवमें संकोच विकाश होनेकी शक्ति है; कर्मोदयसें जब जीव, स्थूलशरीरको छोडके सूक्ष्मशरीरको धारण करता है, तब जीवके असंख्य प्रदेश संकुचित होके सूक्ष्मशरीरमें समा जाते है; जैसें एक कोठेमेंसें प्रकाशक दीपकको लेके एक प्यालेके नीचे रख दिया जावे तो, उस दीपकका प्रकाश उस प्यालेमेंही प्रकाश करेगा; ऐसेंही सूक्ष्मशरीर छोडके महान् शरीरमें जान लेना. और जो शंकरस्वामीने लिखा है, जीवके अनंत अवयव, सो लेख, मिथ्या है. अनंत अवयव नही, किंतु, असंख्य प्रदेश हैं. प्रदेश उसको कहते हैं, जो, आत्माका निरंश अंश होवे; और आत्माके, वे सर्वप्रदेश एकसरीखे हैं; इसवास्ते आत्माकाही संकोच विकाश होता है, प्रदेशोंका नही. जैसे वस्त्रकी तह लगानेसे वस्त्रकाही संकोच है, परंतु तिसके तंतुयोंमें न्यूनाधिक्यता नही है. इसवास्तेआत्माही, संकोच विकाश धर्मके होनेसें सुक्ष्मसें स्थूल, और स्थूलसें सूक्ष्मशरीरमें व्यापक होता है. इसवास्ते शंकरस्वामीकी कल्पनामें शंकरस्वामीकी जैनमतकी अनभिज्ञताही, कारण है. इति। ___ अथ प्रसंगमें 'प्रतिक्षेत्रं भिन्नः' सूत्रके इस अवयवरूप विशेषणकरके आत्मअद्वैतवाद खंडन किया, सो ऐसे है. वेदांती कहते हैं कि, हम तो एकही परमब्रह्म पारमार्थिक सद्रूप मानते हैं. उत्तरपक्षः-जेकर एकही परमब्रह्म सद्रूप है, तो फिर, यह जो सरल रसाल प्रियाल हंताल ताल तमाल प्रवाल प्रमुख पदार्थ अग्रगामिपणे. करके प्रतीत होते हैं, वे, क्योंकर सत्स्वरूप नही हैं? पूर्वपक्षः-येह पूर्वोक्त जे पदार्थ प्रतीत होते हैं, वे सर्व मिथ्या है. तथाचानुमान-'प्रपंचोमिथ्या' प्रपंच मिथ्या है, प्रतीयमान होनेसें, जो ऐसा है, सो ऐसा है, यथा सीपके टुकडेमें, चांदी. तैसाही यह प्रपंच है, For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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