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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६५४ तत्त्वनिर्णयप्रासाद आनंदगिरि, और माधवने अपने २ रचे विजयोंमें शंकरकी बाबत अधिक बडाइ लिखी है, सो अपने गुरु और अपने मतके आचार्यके अनुरागसें लिखी है. जैसें दयानंदसरस्वतिके शिष्योंने इस कालमें " दयानंद दिगविजयार्क " रचा है. परंतु जैसी दयानंदसरस्वतिने मतों की विजय करी है, और जैसी उसके मतकी धूल अन्यमतोंवाले लोक उड़ा रहे हैं, सो हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं. संवत १९४७ में सरकारी गिनती मुजब चालीस हजार ( ४०००० ) के लगभग दयानंदसरस्वतिके मतके माननेवाले आर्यसमाजी गिने गए हैं, उनमें भी प्रायः बडा भाग पंजाबीयोंका है. ऐसीही शंकरविजय होवेगी. क्योंकि, थोडेसेंही वर्ष हुए हैं, पंजाबदेशमें उदासी और निर्मले साधुयोंने, वृत्तिप्रभाकर, वचारसागर, निश्चलदासकृत भाषावेदांतके पुस्तक, और उपनिषदादिकों के अनुसारे, वेदांतमत, प्रचलित किया है. और वेदांतमत माननेवाले जितने पंजाबी हैं, इतने अन्य लोक नही मालुम होते हैं, और दक्षिणमें प्रायः रामानुजके मतवालोंने, मध्वर्क, निंबार्क आदि वैष्णवमतवालोंने, और तुकारामादि भक्तिमार्गवालोंने, शंकरस्वामीके चलाये शुद्धाद्वैतमतकी बहुत हानि करी. और गुजरात, कच्छ, मालवा, मेदपाट, हडौती, ढुंढाड ( जयपुर ), अजमेर, मारवाड, दिल्ली मंडलादि देशोंमें प्रायः शंकरस्वामीका मत प्रचलित नही हुआ मालुम होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त देशों में प्रायः जैनमतकाही प्रबल बहुत था. और शंकरस्वामीके मतके असली रहस्य, अंतमें नास्तिकोंके समान महा अज्ञान, और मिथ्यात्व मोहसें उन्मत्तता, और प्रायः सत्कर्मोंसें भ्रष्टता, आदि कुचलन देखने में आते हैं. और जो शंकरस्वामीका शिष्य आनंदगिरि, जिसने शंकरविजय पुस्तक रचा है, उसको तो, जैनमतकी किंचित भी खबर नही थी. क्योंकि उसने लिखा है कि, कौपीन ( लंगोटी ) मात्रधारी, मस्तक में बिंदु - तिलकका धरनेवाला, मलदिग्ध अंग, ऐसा जैनमती, शंकरस्वामीके पास शिष्यों सहित आया. यह लेख तो, आनंदगिरिने अवश्यमेव किसी भंगा For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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