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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पंचत्रिंशःस्तम्भः। ६४७ स्थानमें लिखेंगे, वहांसें जानलेना. तदनंतर नैमिश, दरद, भरत, सूरसेन, कुरु, पंचालादि देशोंको जीतता हुआ, गुरु भट्ट उदयनादिसें अजीत, ऐसे खंडनकार श्री हर्षको शंकरस्वामीने जीता. पीछे कामरूप देशविशेषोंमें जाके शंकरस्वामी शाक्तभाष्यके कर्ता, अभिनवगुप्तको जीतते हुये. तब अभिनवगुप्तने शंकरको कार्मण करनेका विचार किया तब शिष्योंसहित शंकरस्वामीके साथ शिष्यकीतरें वर्त्तने लगा, और शंकरके बध करनेका उद्यम करने लगा, सो अभिनवगुप्त, शंकरस्वामीको अभिचारिक कर्म करता हुआ. कैसा अभिचारिक कर्म ? जिसकी वैद्य भी चिकित्सा न कर सके, ऐसा. तिससे भगंदरनामा रोग उत्पन्न हुआ, तिस रोगसे झरते हुए लोहीके कीचडसें शंकरकी धोती भीज गइ. अजुगुप्सपरिशोधनादिरूप सेवा, तोटकाचार्यनामा शंकरस्वामीका शिष्य करता हुआ.* शंकरस्वामीको रोगकी उपेक्षा करते देखके शिष्योंने बहुत * शंकरस्वामीका मृत्यु भी इसी रोगसें हुआ है, तथापि सन् १८८४ के सत्यार्थप्रकाशके २८७ पृष्टोपरि स्वामिदयानंदसरस्वतिजीने लिखा है. “ जब वेदमतका स्थापन हो चुका और विद्या प्रचार करनेका विचार करतेही थे इतनेमें दो जैन ऊपरसें कथनमात्रवेदमत और भीतरसें कट्टरजैन अर्थात् कपटमुनि थे, शंकराचार्य उनपर अति प्रसन्न थे, उन दोनोंने अवसर पाकर शंकराचार्यको ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उनकी क्षुधा मंद होगई, पश्चात् शरीरमें फोडे, फुन्सी होकर छ महीनेके भीतर शरीर छूट गया." इस लेखसे सिद्ध होता है कि, स्वामिजीने स्वमतकी प्रसिद्धिकेवास्ते असत्य २ लेख लिखके और निंदा करके भोले लोकोंको फसानेकेवास्ते जाल खड़ा किया है. तथा दयानंदसरस्वतिको जैनमतका ज्ञातपणा भी नही था, यदि होता तो, पूर्वोक्त पुस्तकमेंही ४ ४७ पत्रोपरि ऐसें क्यों लिखते ? कि “ दिगंबरोंका श्वेतांबरोंकेसाथ इतनाही भेद है कि दिगंबरलोग स्त्रीका संसर्ग नहीं करते और श्वेतांबर करते हैं." अफसोस स्वामिजीके लिखनेपर कि जिसको इतना भी ज्ञात नही ! जब जैनमतका यथार्थ ज्ञातपणाही नही था तो, उसका करा खंडन किसको प्रमाण होगा ? किसीको भी नही. जगत्में कहलावत भी है 'आहारसदृशोद्गारः । जैसा आहार भोजन होवे वेसाही उद्गार ( डकार ) आता है. सो स्वामिजीके चित्तमें तो, एक स्त्रीको कइ पति करने ऐसा निश्चय वसा था, तो फिर, ब्रह्मचर्यके तरफ ख्याल कहांसें होवे ? अथवा स्वामिजीने जानबूझकेही जैनीयोंकी निंदा करनेकेवास्ते ऐसा गपोडा ठोक दिया होगा ! क्योंकि, स्वामिजीके लेखसेंही सिद्ध होता है कि, झूठ लिखके किसीका मत खंडन होवे तो, अच्छा है. देखो सत्यार्थप्रकाश पत्र २८७ पंक्ति २९. " अब इसमें विचारना चाहिये कि जो जीवब्रह्मकी एकता जगत् मिथ्या शंकराचार्यका निजमत था तो वह अच्छामत नहीं और जो जैनियोंके खंडनके लिये उस मतका स्वीकार किया हो तो कुछ अच्छा है." वाहजी वाह ! क्या सुंदर श्रद्धान है ! यह कपट नही तो अन्य क्या है ? यह तो ऐसे हुआ कि, दुसरेको अपशकुन करनेकेयास्ते अपना नाक कटवाना ! ! ! For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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