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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६४४ तत्त्वनिर्णयप्रासादठहराके, आप सर्व ढूंढनेको गये; वे पर्वतादि देखते हुए अमरकनृपके देशमें आए. उनोंने वहां श्रवण किया कि, यहांका राजा मरके फिर जी उठा है. तब शिष्योंको धैर्यता आइ, और जाना कि, यही हमारा गुरु है. और जाना कि, यह राजा गीतका लोभी, और स्त्रीयोंमें आसक्त है, तब उनोंने गानेवालोंका वेष किया, तब नगरमें उनके गानेकी प्रसिद्धि हुइ, तब राजाने उनको गान सुननेकेवास्ते बुलवाये, तब उनोंने गानमें " तत्त्वमसि” का उपदेश किया, जो आनंदगिरिकृत विजयमें, और माधवकृत विजयमें प्रकट है. उनका उपदेश सुनके शंकरस्वामी होशमें आये, और राजाका शरीरको छोडकर अपने शरीरमें प्रवेश करगये. परंतु तिस अवसरमें राजाके चाकर, शंकरस्वामीके शरीरको अग्निसें दाह कर रहेथे, तब शरीरमें प्रवेश करके शंकरस्वामीने अग्निको शांत करनेकेवास्ते नरसिंहका स्तोत्र पढा, जो टीकामें लिखा है. अग्नि शांत हुआ, तब शंकरखामी वहांसें चलके शिष्योंके साथ जा मिले. वहांसें मंडनमिश्रके घरमें आये, और तिसकी भार्याके प्रश्नोके उत्तर देके उनको जीते. मंडनको अपना शिष्य किया, वहांसें दक्षिण दिशाको चले, महाराष्ट्रादि देशोंमें अपने रचे ग्रंथोंका प्रचार करते हुए; और अपने शिष्योंसें पाशुपत, वैष्णव, वीर, शैव, माहेश्वरादि मतोंकों खंडन करवाते हुए; अनेक तीर्थोंकी यात्रा की, अपनी मातासें मिलने गये, तिसका अंत्यसंस्कार किया, पीछे दक्षिणादि देशोंमें फिरे, वहांसे चलके विदर्भ देशके सुधन्वा नामा राजाको अपना शिष्य किया; सुधन्वाने मना भी किया तो भी, शंकरस्वामीने कर्णादिदेशोंमें कापालियोंका पराजय किया; वहांसें विचरते हुए, उजयनी नगरीमें आये. सर्व जगे दिग्विजय करके जिन २ मतवालोंको जीते, तिन सर्वके नाम आनंदगिरिने अपने रचे शंकरविजयमें लिखा है. जैनमतका खंडन शंकरने जैसा किया है, सो आनंदगिरिने ऐसा लिखा है. तिस लेखकी भाषाः-तदपीछे शंकरस्वामीके पास ‘जैन' आया. कैसा है जैन ? कौपीनमात्रधारी है, मलकरके जिसका अंग भरा For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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