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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६२४ तत्त्वनिर्णयप्रासाद लिखी है, ऐसें लेखको वांचके कितनेक लोक, जो अंग्रेजी फारसी पढे हुए हैं, वे उपहास्य करते हैं; सो ऐसी अवगाहना, और आयुको जैनमतवाले क्योंकर सत्य मानते हैं ? उत्तरः- हे भव्य ! जबतक पक्षपात छोडके सूक्ष्मबुद्धिसे विचार नही करते हैं, तबतक वस्तुके तत्त्वों नही प्राप्त होते हैं. क्योंकि, पृथिवीमें अधिक रस होनेसें तिस पृथिवीकी वनस्पति में भी अधिक रसवीर्य होता है, और तिस वनस्पतिके खानेवाले पुरुषादिकोंमें अधिक बल होता है, और तिनके शरीर में वीर्य - धातु भी अधिक होता है, और जिसका वीर्य अधिक होता है, तिसका संतान भी कदावर ( बडी अवगाहनावाला ) होता है, हाथीवत् । तथा पंजाबकी भूमिसें गुजरात देशकी भूमि रसमें न्यून है, इसवास्ते पंजाबकी वनस्पति खानेवाले पंजाबीयोंका शरीर गुजरातीयों की अपेक्षा कदावर और बलवान् है; और पंजाबसें काबुलकी भूमि अधिक रसवीर्यवाली है, इसवास्ते वहांकी मेवादि वनस्पति हिंदुस्थानकी अपेक्षा बहुत रसवीर्यवाली होनेसें, वहांके पुरुष भी कदावर, और अधिक बलवान् है. इस लिखनेका यह प्रयोजन है कि, जैनमतके सिद्धांतानुसार वर्त्तमानकाल ' अवसप्पिणी' चलता है, अर्थात् जिस कालमें समय समय भूमि आदि पदार्थोंका अच्छा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, घटता जावे तिसको अवसर्पिणी काल कहते हैं. यदुक्तं पंचकल्पभाष्ये ॥ भणियं च दुसमाए गामा होहिंति ऊमसाणसमा ॥ इय खेत्तगुणा हाणी कालेवि उ होहि इमा हाणि ॥ १ ॥ समये २ णंता परिहायंते उ वण्णमाईया || दवाई पजाया होरत्तं तत्तियं चेव ॥ २ ॥ दूसमअणुभावेणं साहूजोग्गा उ दुलहा खेत्ता || कालेवि यदुभिक्खा अभिक्खणं हुंति डमरा य ॥ ३ ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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