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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः । ६१३ श्रद्धाकरके उपाश्रय प्राप्त कर देना ४; च शब्द वक्ष्यमाण गृहस्थधर्मके समुच्चय वास्ते है. ॥ तथा । राजवार्त्तिकमही । यताः ॥ ॥ धर्मोपकरणानां ग्रहणविसर्जनं प्रति यतनमादाननिक्षेपण समितिः ॥७॥” धर्माविरोधिनां परानुपरोधिनां द्रव्याणां ज्ञानादिसाधनानां ग्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य प्रपूज्य प्रवर्त्तनमादाननिक्षेपणासमितिः ः ॥ भाषार्थः - धर्म के अविरोधी, परके अनुपरोधी, ज्ञानादिके साधन, ऐसें द्रव्योंके ग्रहणमें और त्यागमें देखके और प्रमार्जन करके प्रवर्त्तना, सो आदाननिक्षेपणासमिति है. ॥ तथा राजवार्त्तिकही । यतः ॥ "|| संसक्तान्नपानोपकरणादिविभजनं विवेकः ॥ " संसक्तानामन्नपानोपकरणादीनां विभजनं विवेक इत्युच्यते ॥ भावार्थ:- संसक्त जीवोत्पत्तिवाले अन्न, पाणी, उपकारणादिकोंका त्याग करना ( परठना ), सो विवेक कहिये हैं. ॥ तथा राजवार्त्तिकही पांच प्रकारके निग्रंथोंका स्वरूप लिखा है, तिनमें बकुशका स्वरूप ऐसें लिखा है । यतः ॥ 66 “ ॥ बकुशो द्विविधः उपकरणवकुशः शरीरवकुशश्चेति ॥ " तत्र उपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्र परिग्रहयुक्तः बहु विशेषयुक्तोपकरणकांक्षी तत्संस्कारप्रतीकारसेवी भिक्षुरुप - करणवकुशो भवति शरीरसंस्कारसेवी शरीरबकुशः ॥ भाषार्थः - बकुश दोप्रकारका होता है, उपकरणवकुश १, और शरीरबकुश २; तिनमें जो उपकरणों में रक्त चित्तवाला नाना प्रकार के विचित्र परिग्रहयुक्त, बहुत सुंदर उपकरणोंका इच्छक, और तिन उपकरणोंका संस्कार प्रतिकार करनेवाला, भिक्षु साध, सो उपकरणकुश होता है; और शरीरका संस्कार करनेवाला, शरीरवकुश होता है. ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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