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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त्रयस्त्रिंशः स्तम्भः । ६०९ भावार्थ:- पिच्छादिकौकरके धर्मोपकरणोंको प्रतिलेखके अंगीकार करने, और रखने, सो सम्यग् आदानसमिति है । यहां पीछी आदि लिखा है, सो आदिशब्दसें क्या क्या ग्रहण करना ? और प्रतिलेखके ग्रहण करने, रखने वे धर्मोपकरण, कौन कौनसे हैं ? तथा पूर्वोक्त तत्वार्थ सूत्रावचूरिमेंही ॥ १ २ ३ ટ 25 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir “॥ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपादप्रस्थानविक ल्पतः साध्याः ॥ इस सूत्र के अधिकार में लिखा है । तथाहि ॥ “ | लिंगं द्विभेदं द्रव्यभावलिंगभेदात् तत्र भावलिंगिनः पंचप्रकारा अपि निर्यथा भवंति द्रव्यलिंगिनः असमर्था महर्षयः शीतकालादौ कंवलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयंते न सीव्यति न प्रयत्नादिकं कुर्वेति अपरकाले परिहरतीति भगवत्याराधना प्रोक्ताभिप्रायेणोपकरणकुशीलापेक्षया वक्तव्यम् ॥ 99 भाषार्थ:- लिंग दो प्रकारके हैं, द्रव्यलिंग और भावलिंग; तिनमें भावलिंगी पांच प्रकारके निग्रंथ होते हैं, और द्रव्यलिंगी असमर्थ महाऋषि हैं. जे शीतकालादिमें कंबलादिकों ग्रहण करके धोवे नही हैं, सीवते नही हैं, प्रयनादि करते नही हैं, और शीतकालके दूर हुए त्याग करते हैं; इति । यह कथन, भगवत्याराधनामें कथन करे हुए अभिप्रायकरके उपकरण कुशीलकी अपेक्षा जाणना. ॥ तथा प्रवचनसारवृत्ति में उपधिका भेद कहा है । यतः ॥ छेदो जेण ण विजदि गहणविसग्गेस सेवमाणस्स ॥ समणो तेहि वहदि दुकालं खेत्तं वियाणित्ता ॥ भावार्थ:- जिसके करनेसें न होवे छेद, लेने और छोडनेमें, इस रीति सें उपधि आहार निहार कारणे सेवना करतेको, तिस्सें तिसमें श्रमणपणा वर्त्ते हैं, दुषमकालको, और क्षेत्रको जानके ॥ ७७ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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