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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६०२ तत्त्वनिर्णयप्रासाद दिगंबरी :- यह पूर्वोक्त पूजा विषयिक आपका श्रम, प्रायः व्यर्थ है. क्योंकि, हमारेही शास्त्रोंके पाठ हैं, और इन सर्वपाठोंको हम मानते हैं, और इन सर्वपाठानुसार हम करते भी हैं. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्वेतांबरी :- यह आपका कथन सत्य है, परंतु हमारे पूर्वोक्त लेखोंमें कितनाक श्रम, वीसपंथी दिगंबरी आदि सर्व दिगंबराम्नायके वास्तेही है; जिसमें भी, पूजाविषयक श्रम तो, प्रायः तेरापंथी दिगंबरीयोंके वास्ते हैं तेरापंथी दिगंबरीः - पुष्पादिकसें पूजन करनाहि पाप है. क्योंकि, इसमें बडी हिंसा होती है. और धर्म तो अहिंसामय है. अभिषेकमें और पुष्पादिके चढावनेमें बहुत सावद्यारंभ होता है, इसवास्ते हम पूर्वोक्त विधान नही करते हैं. 2 उत्तरः- वाहजी वाह ! ! आपको भी ढुंढकमतका स्पर्श हुआ मालुम होता है. क्योंकि, ऐसी जैनागमविरुद्ध श्रद्धा तो अपठित ढुंढकमतावलंबीयोंकी है; परंतु दिगंबराम्नायकी तो ऐसी श्रद्धा नही है. बलकि, दिगंबरानायके श्रीयोगींद्रदेवकृत श्रावकाचार में, तथा सारसंग्रहमें, तथा आराधनाकथाकोशादि शास्त्रों में लिखा है कि, श्रीजिनाभिषेक में, पुष्पादिकसे जिनपूजा करनेमें, और तीर्थयात्रा, जिनबिंब, प्रतिष्ठा आदि कार्यों में, जो आरंभ कहता है, और सावद्ययोग कहता है, तथा हिंसारंभ कथन करता है, सो मिथ्यादृष्टि है, दर्शनभ्रष्ट है, पापी है, सम्यग् - दर्शनका घातक है, और श्रीजिनधर्मका द्रोही हैं. तथाहि ॥ आरंभे जिणण्हावियए जो सावज्जं भणंति दंसणं तेण ॥ जिमइमलियो इच्छुण कांइओभंति ॥ १ ॥ जिनाभिषेके जिनवैप्रतिष्ठाजिनालये जैनखुयात्रयायां ॥ सावयलेशो वदते स पापी स निंदको दर्शनघातकश्च ॥ १ ॥ श्रीमज्जिनेंद्र चंद्राणां पूजा पापप्रणाशिनी ॥ स्वर्गमोक्षप्रदा प्रोक्ता प्रत्यक्षं परमागमे ॥ १ ॥ For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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