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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तत्वनिर्णयप्रासादउत्तरः-प्रथम तो श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायजी, जो के स्याद्वादकल्प लता १, वैराग्यकल्पलता २, अध्यात्मोपनिषद् ३, अध्यात्मसार ४, अध्यास्मरहस्योपदेश ५, ज्ञानसार, ६, ज्ञानविंदु ७, नयोपदेश ८, नयप्रदीप ९, अमृततरंगिणी १०, समाचारी ११, खंडखाद्य १२, धर्मपरीक्षा १३, अध्याममतपरीक्षा १४, पातंजलचतुर्थपादवृत्ति १५, कर्मप्रकृतिवृत्ति १६, अनेकांतजैनमतव्यवस्था १७, देवतत्त्वनिर्णय १८, गुरुतत्त्वनिर्णय १९, धर्मतत्त्वनिर्णय २०, तर्कभाषा २१, द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका २२, अष्टक २३, षोडशकवृत्ति २४, इत्यादि शत (१००) ग्रंथके कर्ता, और षट्दर्शनतर्कके वेत्ता, तथा काशीमें सर्वपंडितोंने जिनको जयपताका, और न्यायविशारदकी पदवी दीनी थी, ऐसे श्रीयशोविजयोपाध्यायजी लिखते हैं कि, जितने दिगंबरोंके तर्कशास्त्र हैं, वे सर्व, श्वेतांबरोंके तर्कशास्त्रोंने दले हुए, अर्थात् खंडन करे हुए हैं; तिनमेंसें नमूनामात्र यहां लिख दिखाते हैं. __ अहँ । केवलीको कवल आहारके हुए, सर्वज्ञपणेके साथ विरोध होता है, ऐसे मानते हुए दिगंबरोंका खंडन करते हैं. नच कवलाहारवत्वेन तस्यासर्वज्ञत्वम् ॥ कवलाहारसर्वज्ञत्वयोरविरोधात् ॥ व्याख्याः-केवलीको कवलाहारी होनेकरके, सर्वज्ञपणेकेसाथ विरोध नही है सोही दिखाते हैं. कवलाहार, और सर्वज्ञपणेका जो विरोध, दिगंबर मानते हैं सो साक्षात् मानते हैं, वा परंपराकरके मानते हैं ? यदि आदि पक्ष दिगंबर मानेंगे, सो ठीक नहीं. क्योंकि, सर्वज्ञपणेके हुए केवलीको कवलाहार प्राप्ति नहीं होता है, यह बात नहीं है. और कवलाहार मिल तो सकता है, परंतु केवली खा नही सकता है, यह भी नहीं है. अथवा केवली खा तो सकता है, परंतु खानेसें केवलज्ञान दौड जायगा, इस शंकासें नही खा सकता है यह बात भी नहीं है; इन पूर्वोक्त तीनों बातोंमें हेतु कहते हैं; अंतराय कर्म, और केवलावरण कर्मोका समूल नाश करनेसें, पूर्वोक्त तीनो बातें नहीं हो सकती है. जेकर दिगंवर दूसरे परंपराविरोधपक्षको अंगीकार करके विरोध कहे तो, मो भी वालकोंकी For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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