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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (४५) दुंढक लोग इसही डरके मारे व्याकरण पढने नहीं देतेहैं और यह भी सिद्ध होताहै कि इनके सब अर्थ प्रायः मनः कल्पित है, और जानबुझके अज्ञान रूप अंधे कूपमें गिरते हैं.” यह समझके श्रीआत्मारामजीने निश्चय किया कि, जो कुच्छ पूर्वाचार्योंने नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका वगैरह द्वारा अर्थ कियेहैं, वेही अर्थ यथार्थ हैं, और जो कोइ मनःकल्पित अर्थ शास्त्रोंके करतेहैं, वो बडाही अनर्थ करतेहैं. चौमासे बाद श्रीआत्मारामजी जीरासें विहार करके “मनोहरदास के टोलेके ढुंढक साधुओंमें वृद्ध पंडित साधु “रत्नचंदजीके" पास विद्याभ्यास करनेके वास्ते "आग्रा शहरमें गये,और संवत् १९२० का चौमासा वहांही किया. रत्नचंदजीने बड़ी खुशीसे श्रीआत्मारामजीको “स्थानांग" "समवायांग" "भगवती" "पन्नवणा 7 "बृहत्कल्प" व्यवहार" " निशीथ " "दशाश्रुत स्कंध, “संग्रहणी" "क्षेत्रसमास " सिद्ध पंचाशिका " " सिद्धपाहुड" “निगोद छत्रीसी" "पुद्गल छत्रीसी" "लोकनाडीहात्रिंशिका, “षट्कर्म ग्रंथ ११ चार जातके "नयचक्र, " इत्यादि कितनेही शास्त्र पढाये, जिनमें कितनेक प्रथम श्रीआत्मारामजी पढे हुएथे, तो भी अर्थ निश्चय करनेके वास्ते फिरसे पहे. श्रीआत्मारामजीको विभक्तिज्ञान होनेसें जे अर्थ मालूम होतेथे, वे अर्थ ढुंढकोंके पढाये अर्थके साथ नहीं मिलतेथे, जिससे श्रीआत्मारामजीको निश्चय होगया कि पूर्वाचार्योंके किये हुये अर्थही सत्य है, तथापि परीक्षा करने लगे तो पूर्ण करनी चाहिये. रत्नचंदजीके पढाये अर्थ प्रायः अन्य ढूंढकोंसे विपरीत, और टीका वगैरहके साथ मिलते हुये श्रीआत्मारामजीको भान हुए, इस वास्ते अधिक आनंदसें उनके पास पढे. इस चौमासेमें श्रीआत्माराजीने रत्नचंदजीके पाससे कितनाक अपूर्व ज्ञान भी प्राप्त किया. रत्नचंदजीके पास चिरकालतक श्रीआत्मारामजीकी पढनेकी मरजीथी परंतु जीवणरामजीके बुलानेसें चौमासे बाद विहार करनेकी तैयारी करके श्रीआत्मारामजी रत्नचंदजीके पास आज्ञा लेनेके वास्ते गये. तब रत्नचंदजी नाराज होके कहने लगे कि “तुमारा वियोग मैं चाहता नहीं हुँ. परंतु क्या करूं? तुमारे गुरूका हुकम आयाहै, सो तुमको भी मान्य करनाही चाहिये, परंतु अंतकी मेरी शिक्षा तुम अंगिकार करो. मैंने सुनाहै कि,आत्माराम श्री जिन प्रतिमाकी बहुत निंदा करताहै, परंतु यह काम करना तुजको अच्छा नहीं है. हमारे कहनेसें इस तरह अमल करना. एक तो श्री जिन प्रतिमाकी कबी भी निंदा नहीं करनी (१) दूसरा पेशाब करके विना धोया हाथ कबी भी शास्त्रको नहीं लगाना (२) और तीसरा अपने पास सदा दंडा रखना (३). मैंने यह तुजको श्री जैनमतका असल सार बताया है. कितनेक दिनों बाद जब तूं व्याकरण पढेगा, और शास्त्रका यथार्थ बोध होगा, सब कुच्छ तुजको मालुम हो जायगा. आगे भी इसी तरह ज्ञानाभ्यास करने में निरंतर उद्यम रखना और व्याकरण जरूर पढना.” तब श्री आत्मारामजीने कहा कि, “महाराजजी ! एक बात और भी बतावें कि, मुखपर कानोंमें डोरा डालकर मुहपत्तीका बांधना सूत्रानुसार है कि नहीं? 7 श्रीरत्नचंदजीने जवाब दिया कि, " सूत्रानुसार तो नही. क्योंकि, शास्त्रानुसार तो मुहपत्ती हाथमें रखनी कही है. परंतु अनुमान (१५०) देढसें वर्षसें हमारे बड़ोंने मुखपर मुहपत्ती बांधी है,और तेरे बड़ोंने अनुमान दोसौं (२००) वर्षसें बांधनी सुरू की है. यह ढुंढकमत अनुमान सवादोसौं (२२५) बर्षसें बिना गुरु अपने For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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