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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४३ ) इस तरह महाराजजी श्रीने देखा कि जैन शास्त्रोंसें सिद्ध होता है कि, विना व्याकरण के पढे ठीक ठीक यथार्थ अर्थ नही भान होसकता. इस वास्ते मैं जरुर अब व्याकरण पढुंगा. हायअफशोस ! कैसे कुगुरोंके वश होकर जपनी अमूल्य विद्याप्राप्त्यवस्था निष्फल करी ! पूर्वोक्त कारणोंसें, तथा बहुत देशोंमें फिरनेसें, बहुत जैनमंदिर तथा बडे बडे पुस्तकों के भंडार देखनेसें, श्री आत्मारामजीके मनमें यह निश्चय हुआ कि “जैनमत " तो कोई अन्यही वस्तु है, और यह ढुंढकमत अन्यही वस्तु है. * जैनमतके शास्त्रोंसें ढुंढकमत के विपरीत अनिष्टाचरण देखनेसें, श्री आत्मारामजीके मनसें ढूंढकमतकी आस्था कम होगई और गुजरातदेशमें जाके पंडित साधुओंके साथ वातचित करके निर्णय करने का इरादा श्री आत्मारामजीने किया तथा जैनमतके प्रसिद्ध तीर्थ "शत्रुंजय" "उज्जयंत". ( गिरनार ) आदि की बहुत प्रशंसा तिनके सुनने में आई, जिससे उनको देखनेकी उत्कंठा भी श्रीआत्मारामजीको हुई. इस वास्ते श्री आत्मारामजीने "गुजरात " देशमें जाने की इच्छा की. परंतु जीवणरामजीने गुजरात देशमें जानेके वास्ते कितनेक प्रकारकी दहशत दिखाई, और आज्ञा नही दी; जीससे श्री आत्मारामजी चौमासे बाद "जावरा" "मंदसोर" "नीमच" " जावद " वगैरह शहेरोंमें होके “ चितोड " गये. तहां पुराने किल्लेमें जाके बहुत उज्जडे हुए थेह, (खंडेर) जैनमंदिर, फतेह के महेल, कीर्त्तिस्तंभ, जलके कुंड, कीर्त्तिधर सुकोशल मुनिकी तप करनेकी गुफा, पद्मिनी राणीकी सुरंग, सूर्यकुंड वगैरह प्राचीन वस्तुयें देखके संसारकी अनित्यता और तुच्छता इंद्रजालकी तरह क्षणमात्रका तमासा याद आया ! इत्यादि श्रीठाणांग सूत्रोक्त दश प्रकारका त्रिकाल विषयक सत्य-तथा प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, सौरनसेनी, अपभ्रंश, एवं षट् भाषा गद्य-पद्य रूपकरके बार प्रकार की भाषा तथा 66 'वयण तियं ३ लिंग तियं ३ कालतियं ३ तह परोक्ख १० पञ्चक्खं ११ उवणीयाइ चटक्क १५ अब्भत्थंचेव १६ सोलसमं " एवं सोलह प्रकार के वचनको जाननेवालेको अर्हदनुज्ञात बुद्धिद्वारा पर्यालोचन करके साधुको अवसरमें बोलना चाहिये, नान्यथा. तथा श्रीअनुयोगद्वार सूत्र में सक्कया पागयाचेव इत्यादि संस्कृत, और प्राकृत दो प्रकारकी भाषा स्वरमंडलमें ग्रहण करके बोलनेवाले साधुकी भाषा प्रसस्थ है. तथा पूर्वोक्त शास्त्रमेंही प्रमाणाधिकारमें भावप्रमाण चार प्रकारका है - सामासिक (१) तद्वितज (२) धातुज (३) निरुक्तिज ( ४ ). सामासिकके सात भेद हैं. द्वंद्व ( १ ) बहुव्रीहि ( २ ) कर्मधारय ( ३ ) द्विगु ( ४ ) तत्पुरुष (५) अव्ययीभाव ( ६ ) और एकशेष (७). तिज आठ भेद हैं, कर्म ( १ ) शिल्प ( २ ) श्लाघा ( ३ ) संयोग ( ४ ) समीप ( ५ ) ग्रंथरचना ( ६ ) ऐश्वर्यता ( ७ ) और अपत्य ( ८ ). धातुज - भू सत्तायां परस्मै भाषा - एध वृद्धौ -- स्पर्द्ध संहर्षे - निरुक्तिज - मह्यां शेते महिषः । भ्रमति रौति च भ्रमरः मुहुर्मुहुर्रुसतीति मुसलं इत्यादि - और भी श्री ठाणांगसूत्र -दशाश्रुत स्कंध सूत्र वगैरह भी व्याकरणका पढना सिद्ध होता है. * 'प्रायः इनका आचरण, जैनमत के शास्त्रोंस विपरीत हैं. जैनशास्त्रोंमें ठिकाने ठिकाने जिनप्रतिमाका पाठ आता है, तिनका ढुंढकलोक निषेध करते हैं; और जिन प्रतिमाकी शास्त्रोक्त रीतिसें पूजन करनेवालेको हिंसाधर्मी कहते हैं. तपगच्छ, खरतरगच्छ आदिके साधु मुहपत्ति हाथमें रखते हैं, और ढुंढक साधु रातदिन मुख बंधी रखते हैं; जो कि जैनमत के शास्त्र से विरुद्ध है. तपगच्छादिके साधु दंडा रखते हैं, ढुंढक रखते नही हैं; और शास्त्रों में दंडेका वर्णन आता है. कितनेक ढुंढकमतके श्रावक, कितनेही महीनोंतकका स्नान करनेका नियम करते हैं, इतनाही नहीं, परंत कितनेक जंगल (दिशा) फिरके हाथ, पाणीसें धोनेका भी नियम करते हैं. जिस नियमका नाम “अणकी व्रत बहुत ढूंढो में प्रसिद्ध है तथा लघुनीतिका नाम “नयापाणी " घर रखा है, इत्यादि. " For Private And Personal
SR No.020811
Book TitleTattva Nirnayprasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhvijay
PublisherAmarchand P Parmar
Publication Year1902
Total Pages863
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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